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आगम विषय कोश-२
२०९
चारित्र
(शय्यातरपिण्ड पांचवां और राजपिण्ड ग्यारहवां शबल वस्त्र मलिन ही कहा जाता है। उसी प्रकार चारित्र में भी है। जिस आचरण से चारित्र धब्बों वाला होता है, उस छोटी-बड़ी स्खलना से शबल दोष लगता है। आचरण अथवा आचरणकर्ता को 'शबल' कहा जाता है। १२. प्रथम पांच शबल : गुरु प्रायश्चित्त
-सम २१/१)
हत्थकम्मादारब्भ जाव रायपिंडं ताव कालगा १०. शबल और उसका सीमानिर्धारण
अणुग्घातिया अवराधपदा। सयं परेण वा मेहुणं दिव्वदव्वे चित्तलगोणादि, एसु भावसबलो खुतायारो। माणुसतिरिक्खजोणिय-अतिक्कम-वतिक्कम-अतियारे वतिक्कमे अइक्कमे अतियारे भावसबलो उ॥ तिवि, अणायारे सव्वभंग एव। (दशा २/३ की चू) खुतं भिण्णमित्यर्थः, न सर्वशः ईषत्।."एक्के
हस्तकर्म यावत् राजपिंड-इन पांच शबल दोषों में अवराहपदे मूलगुणवजेसु आहाकम्मादिसु अतिक्कमे कालत: गुरु प्रायश्चित्त आता है। दिव्य, मनुष्य या तिर्यंच वइक्कमे अतियारे अणायारे य सव्वेसु सबलो भवति" संबंधी मैथुन में अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार का स्वयं मूलगुणेसु आदिमेसु तिसु भंगेसु सबलो भवति। चउत्थभंगे सेवन करता है अथवा दूसरों से करवाता है, वह शबल दोष सव्वभंगो।
(दशानि १२ चू) है। अनाचार होने पर चारित्र का सर्वभंग हो जाता है। शबल का अर्थ है चितकबरा।
१३. बारहवें शबल का स्वरूप द्रव्य शबल-चितकबरी गाय आदि।
आउट्टियाए पाणातिपातं करेमाणे सबले-आउट्टिया भाव शबल-साध्वाचार में ईषत भेद करने वाला।
णाम जाणंतो"दव्वादिसुजं करेति।जधा"पुढविक्कायमूलगुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार तक मक्खित्तेण वा हत्थमत्तेणं भिक्खं गिण्हइ,"उदउल्लकी सीमा में शबल दोष होता है। अनाचार होने पर चारित्र ससिणि हिंवा हत्थमत्तेहिं अपरिणएहिं भिक्खं गिण्हइ। पूर्णत: भंग हो जाता है।
तेअनिक्खित्तं गिण्हइ दितावेइ वा,"कंदाइ गिण्हइ, संघट्टेणं ___मूलगुणवर्जित आधाकर्म आदि में अतिक्रम, व्यतिक्रम, वा भिक्खं गिण्हइ, बेइंदिएहिं पंथो संसत्तो तेण वच्चति, अतिचार और अनाचार होने पर शबल दोष होता है। आहारं वा संसत्तं गिण्हति।एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचें११. शबल दोष से विराधना : घट दृष्टांत दिया मंडुक्कलियाई पंथे ववरोवेजा। (दशा २/३ की चू)
बाले राई दाली, खंडो बोडे खुते य भिन्ने य। जानबूझकर द्रव्य आदि से संबंधित प्राणातिपात आदि कम्मासपट्टसबले, सव्वा वि विराहणा भणिया॥ करना शबल दोष है। जैसे
(दशानि १४) ० पृथ्वीकाय से मेक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। जल से शबल दोषों से होने वाली देश (आंशिक) विराधना आर्द्र-स्निग्ध हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। अग्नि पर रखी और सर्व-विराधना को
बताया गया है- वस्तु ग्रहण करना-करवाना। कंद आदि ग्रहण करना, उनसे खंडित घट के अनेक रूप हैं-बाल जितने छिद्र वाला। छोटी स्पृष्ट भिक्षा लेना। सी दरार वाला। बड़ी दरार वाला। एक भाग खंडित। बिना ० द्वीन्द्रिय जीवों से संकुल मार्ग से जाना, इन जीवों से छोर (किनारी) वाला। छिद्रों वाला। बड़े छिद्रों वाला फूटा संसक्त आहार लेना।
० मार्ग में त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-मंड्रकी आदि इन घड़ों से पानी क्रमशः अधिक, अधिकतर झरता
जीवों का उपघात करना-ये सब शबल हैं। है अतः ये दोषपूर्ण हैं । इसी प्रकार शबल दोषों से देश और १४. दर्शन-ज्ञान-शबल सर्व विराधना होती है।
दरिसणं प्रति संकादि।णाणे काले विणए। कम्मासपट्ट-जैसे सूती वस्त्र पर छोटा या बड़ा धब्बा हो तो
(दशा २/३ की चू)
हुआ घट।
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