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आगम विषय कोश - २
का अन्यथा प्रतिपादन करता है और आचार्य आदि के द्वारा निषेध किए जाने पर पुनः सम्यक् प्रवृत्त होता है, वह उपस्थापना के योग्य नहीं है । 'मिच्छामि दुक्कडं' के कथनमात्र से उसकी शुद्धि हो जाती है T
कोई श्रावक अनजान में निह्नवों के पास दीक्षित हो जाता है, सही जानकारी मिलने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर मिथ्यात्व से निवृत्त हो पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर शुद्ध साधुओं के पास उपसम्पन्न होता है-सही मार्ग की प्रतिपत्ति ही उसका प्रायश्चित्त है और वही व्रतपर्याय है, उसकी पुनः उपस्थापना नहीं होती।
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जो जानबूझकर सन्मार्ग छोड़कर मिथ्यामार्ग को स्वीकार करता है और दूसरों के द्वारा प्रज्ञापित होकर पुनः सम्यक्त्वी बन दीक्षित होता है, उसे अर्हत् और आचार्य की आज्ञा से मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त दिया जाता है-मूलतः उपस्थापित किया जाता है।
जो साधु परवशता के कारण षट्जीवनिकाय की विराधना करता है, वह आलोचना-प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाता है। जो स्वच्छन्दता से छहजीवनिकाय की विराधना करता वह आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक मूलत: ही उप-स्थापनीय है।
७. कषाय से चारित्र समाप्त
अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ !" जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए । तं पि. कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण ॥ (बृभा २७१२, २७१५)
चारित्र की निष्पत्ति अकषाय अवस्था में ही होती है। निश्चयनय के अनुसार जो कषायसहित है, वह साधु ही नहीं है ।
देशोन कोटिपूर्व तक की गई चारित्र की आराधना कषाय के उदयमात्र से मुहूर्त्त भर में समाप्त हो जाती है। ८. मूल - उत्तरगुण भंग से चारित्र भंग : दृष्टांत मूलगुणदतिय-सगडे, उत्तरगुणमंडवे सरिसवादी । छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी ॥
एकव्रतभंगे सर्वव्रतभंग इति, एतन्निश्चयनयमतं, व्यवहारतः पुनरेकव्रतभंगे तदेवैकं भग्नं प्रतिपत्तव्यं,
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चारित्र
शेषाणां तु भंगः क्रमेण, यदि प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नानुसन्धत्ते इति । अन्ये पुनराहुः - चतुर्थमहाव्रतप्रतिसेवनेन तत्कालमेव सकलचारित्रभ्रंशः, शेषेषु पुनर्महाव्रतेष्वभीक्ष्णं प्रतिसवेनया महत्यतिचरणे वा वेदितव्यः । उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन चरणभ्रंशो, यदि पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नोज्ज्वालयति । (व्यभा ४६९ वृ)
दृतिदृष्टांत - पांच द्वार (छिद्र) वाली जल से भरी मशक का एक द्वार भी खुला रह जाये तो वह तत्काल खाली हो जाती है। इसी प्रकार एक महाव्रत के अतिचरित होने पर तत्काल समस्त चारित्र नष्ट हो जाता है ।
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एक मूलगुण की घात से सर्वमूलगुणों की घात होती है - यह निश्चय नय का मत है। व्यवहारनय के अनुसार एक व्रत भंग होने पर वही एक व्रत भंग होता है। यदि प्रायश्चित्त से शुद्धि नहीं की जाती है तो शेष व्रतों का क्रमशः भंग होता है।
( अन्य आचार्य कहते हैं - चतुर्थ महाव्रतप्रतिसेवना से तत्काल ही सकल चारित्र - भ्रंश होता है। शेष महाव्रतों का बार-बार प्रतिसेवना से या बड़ा दोष होने पर भंग होता है । यदि प्रायश्चित्त से शुद्धि नहीं की जाती है तो उत्तरगुणप्रतिसेवना से क्रमश: चारित्र भग्न होता है।
० शकट दृष्टांत - गाड़ी के चक्के आदि मूल अंग भग्न होने पर वह भारवहन में सक्षम नहीं होती। कील, लोहपट्ट आदि उत्तर अंग भग्न होने पर कुछ काल तक गाड़ी भारवहन कर सकती है। इसी प्रकार एक मूलगुण का नाश होने पर चारित्र तत्काल नष्ट हो जाता है। उत्तरगुणों के नाश से वह कालक्रम से नष्ट होता है।
० मंडप-सर्षप दृष्टांत - एरंड आदि का मंडप थोड़े से सरसों या तिल - तंदुल से ध्वस्त नहीं होता। शिलाप्रक्षेप से वह तत्क्षण ध्वस्त हो जाता है । चारित्र मंडप भी एक, दो, तीन आदि उत्तरगुणों के अतिचरण से भग्न नहीं होता । अत्यधिक उत्तरगुणप्रतिसेवना होने पर वह कालक्रम से भग्न होता है । शिला सदृश एक मूलगुण अतिचरण से भी वह तत्काल भग्न होता है। छह - जीवनिकायसंयम से मूलगुण और उत्तरगुण निरतिचार (शुद्ध) होते हैं । इन दोनों की शुद्धि से चारित्रशुद्धि होती है।
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