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आगम विषय कोश-२
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गोष्ठी
थे। शून्यगृह में अंधकार व्याप्त था। एक पाया मुनि के पैर पर कायगुप्ति की साधना में निष्णात मुनि यतनापूर्वक चल टिका और मुनि का पैर उस कील से बिंध गया। वह जार रहा था। इतने में ही एक हाथी चिंघाड़ता हुआ उसी मार्ग पर आ पुरुष के साथ व्यभिचार करने लगी। किन्तु उस भगवान् मुनि । गया। उसके भय से मुनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वह का मन अपने ध्यान से विचलित नहीं हुआ।
ईर्यापूर्वक मार्ग में चलता रहा। हाथी निकट आया और उसने मुनि ० वचनगुप्ति : साधु-ज्ञातिजन दृष्टांत
को सूंड में पकड़कर ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर वतिगुत्तीए-सण्णातयसगासंसाधपस्थितो।चोरेहिं की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्त्वों की हिंसा होगी-इस गहितो वुत्तो य। मातपितरो से विवाहनिमित्तं एताणि दयाभाव में परिणत होकर वह ध्यानस्थ हो गया। दिवाणि। तेहिं नियत्तितो। तेण तेसिं वइगुत्तेण ण कहितं। गोष्ठी-मण्डली, समान वय वालों का समुदाय। पुणरवि चोरेहिं गहिताणि। साहू य पुणो तेहिं दिट्ठो। स गोष्ठी के अधिकृत व्यक्ति महत्तर आदि एवायं साधुत्ति भणिऊण मुक्को । इतराणवि तस्स वइ- महतर अणुमहतरए, ललियासण कडुअ दंडपतिए य। गुत्तस्स मातापितरोत्ति काउं मुक्काणि। (दशानि९२ की चू) एतेहिँ परिग्गहिया, होंति घडातो तदा काले॥
एक साधु अपने ज्ञातिजनों के साथ प्रस्थित हुआ। चोरों सव्वत्थ पुच्छणिज्जो, तु महतरो जेट्टमासण धुरे य। ने उसे पकड़ लिया और पूछताछ की। मुनि मौन रहा, तब उसे तहियं तु असण्णिहिए, अणुमहतरतो धुरे ठाति॥ छोड़ दिया। साधु ने अपने माता-पिता को विवाह के निमित्त भोयणमासणमिटुं, ललिए परिवेसिया दुगुणभागो। उधर जाते हुए देखा। किन्तु चोरों के बारे में कुछ नहीं बताया। कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु॥ चोरों ने उन्हें भी रोका और पकड़ लिया। साधु को भी पुनः
(बृभा ३५७४-३५७६) पकड़ लिया। फिर यह वही साधु है-ऐसा कहकर उसे प्राचीनकाल में पांच प्रकार के व्यक्तियों द्वारा परिगृहीत छोड़ दिया। ये वाग्गुप्त मुनि के माता-पिता हैं, यह सोचकर गोष्ठियां होती थींउन्हें भी मुक्त कर दिया।
१. महत्तर-सब गोष्ठीपुरुषों में यह प्रमाणभूत प्रथमपुरुष होता * वचनसमिति और मौन
द्र समिति
था। सारे कार्य इसी से पूछकर किए जाते थे। इसका आसन ० कायगुप्ति : कूर्म दृष्टांत
बृहत्तर होता, जो सबसे आगे स्थापित किया जाता।
२. अनुमहत्तर-यह महत्तर की अनुपस्थिति में सबके द्वारा जहा कच्छपो स्वजीवितपरिपालनार्थं अप्पणो
प्रच्छनीय होता था तथा इसका स्थान भी प्रथम होता था। अंगाणि सए कभल्ले गोवेति गमणादिकारणे पुण सणियं
३. ललितासनिक-इसका अशन और आसन ललित होता पसारेति, तथा साधुवि संजमकडाहे इंदियपयारंकायचेटुंच
था, इसे मनोज्ञ आहार का दुगुना भाग दिया जाता। भोजन निरंभति।
(दशा ५/७ की चू)
परोसने के लिए उस स्त्री की नियुक्ति की जाती, जो उसे कछुआ अपने जीवन की सुरक्षा के लिए अपने अंग- अभीष्ट होती थी। प्रत्यंगों को अपने कटाह में संगोपित कर लेता है। गमन आदि ४. कटक-यह गोष्ठी के अपराधी सदस्य के दंड का परिच्छेद प्रयोजन होने पर पुन: अपने अवयवों को धीरे-धीरे फैलाता (निर्धारण) करता था। है। इसी प्रकार साधु भी संयम रूपी कटाह में इन्द्रियों की ५. दंडपति-यह उस दंड को वहन करवाता था। प्रवृत्ति का और कायचेष्टा का निरोध करता है।
गोष्ठीपुरुष शय्यातर की अनुज्ञाविधि ० कायगुप्त मुनि दृष्टांत
..."अणुण्णवणा, ....."एक्कओ पढमं । कायगुत्तीए-साहू हत्थिसंभमे गतिं ण भिंदति, जेट्ठादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं॥ अद्धाणपडिवन्नो वा। (दशानी ९२ की चू)
(बृभा ३५७७)
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