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गणिसम्पदा
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आगम विषय कोश-२
२. असंप्रग्रहिता-जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार करना। आरोहपरिणाहसंपन्ने यावि भवति, अणोतप्पसरीरे, थिरजैसे—मैं आचार्य हूं, बहुश्रुत हूं, तपस्वी हूं, सामाचारीकुशल संघयणे, बहुपडिपुर्णिणदिए यावि भवति।" (दशा ४/६) हूं-इस प्रकार के अहंकार से मुक्त होना।
तवु लज्जाए धातू, अलज्जणीओ अहीणसव्वंगो। ३. अनियतवृत्ति-अनियतविहार । ग्राम में एक दिन तथा नगर
___ होति अणोत्तप्पे सो, अविगलइंदी तु पडिपुण्णे॥ में पांच दिन का प्रवास करना, अन्य-अन्य वीथियों में भिक्षाचर्या करना। उपवास आदि तपस्या करना और एषणासंबंधी
(व्यभा ४०९३) अभिग्रहविशेष ग्रहण करना भी अनियतवृत्ति है। अथवा
शरीरसंपदा के चार प्रकार हैं- १. आरोह-परिणाहअगही-अनिकेत होना अनियतवृत्ति है।
सम्पन्न। २. अनपत्रप-शोभनीय-अलज्जनीय शरीर वाला। ४. वृद्धशीलता-शरीर और मन से निर्विकार होना।। अथवा जिसके सभी अंग अहीन-पूर्ण हो। ३. स्थिर (सुदृढ़) विशुद्धशीलता, निभृतशीलता, अबालशीलता, अचंचलशीलता संहनन वाला। ४. परिपूर्ण और स्वस्थ इन्द्रियों वाला। और मध्यस्थशीलता-ये वृद्धशीलता के पर्याय हैं।
आरोह-परीणाहा, चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। २. श्रुतसम्पदा : घोषविशुद्धि आदि
अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे ॥ ___ सुतसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बहुसुते
आरोहो नाम-शरीरेण नातिदैy नातिह्रस्वता, यावि भवति, परिचितसुते यावि भवति, विचित्तसुते यावि
परिणाहो नाम-नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता; अथवा भवति, घोसविसुद्धिकारए यावि भवति।" (दशा ४/५)
आरोहः-शरीरोच्छ्रायः, परिणाहः-बाह्वोर्विष्कम्भः, एतौ बहुसुतजुगप्पहाणे, अभितर-बाहिरं सुतं बहहा। द्वावपि तुल्यौ न हीनाधिकप्रमाणौ। आरोहादिक- मोज होति च सद्दग्गहणा, चारित्तं पी सबहयं पि॥ उच्यते, तद् यस्यास्ति स ओजस्वी।"अलज्जनीयता सगनामं व परिचितं, उक्कमकमतो बहहि विगमेहिं। दीप्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम्, तद् विद्यते.यस्य स तेजस्वी। ससमय-परसमएहिं, उस्सग्गऽववायतो चित्तं ॥
(बृभा २०५१ वृ) घोसा उदत्तमादी, तेहि विसुद्धं तु घोसपरिसुद्धं ।
आरोह-न दीर्घता, न बौनापन । अथवा शरीर की उचित ऊंचाई। (व्यभा ४०८८-४०९०)
परिणाह-न स्थूलता, न दुर्बलता।अथवा भुजाओं की विशालता।
आरोह और परिणाह दोनों तुल्य हों, हीनाधिक प्रमाण में न श्रुतसम्पदा के चार प्रकार हैं
हों। जिसका शरीर सुगठित और उपचित हो, इन्द्रियां प्रतिपूर्ण १. बहुश्रुत-युगप्रधान पुरुष, जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों का परिज्ञाता होता है तथा जिसके चारित्रपर्यव बहुत
हों तथा जो आरोह-परिणाहसम्पन्न हो, वह ओजस्वी है।
जो शरीर से अलज्जनीय हो, दीप्तियुक्त होने से २. परिचितश्रुत-जो अपने नाम की तरह श्रुत से परिचित
अनभिभवनीय हो, वह तेजस्वी है। होता है, क्रम-उत्क्रम के विविध प्रकारों से श्रुतपरावर्तन में माणुम्माणयमाणं, लेहसत्तवपुअंगमंगाई। दक्ष होता है।
मणिबंधाओ पवत्ता, अंगुढे जस्स परिगता लेहा। ३. विचित्रश्रुत-स्वसमय-परसमयवक्तव्यता में निपुण तथा सा कुणति धणसमिद्धं, लोगपहाणं च आयरियं॥ उत्सर्ग-अपवादसूत्रों की विचित्रता को जानने वाला।
सत्तं अदीणता खलु, वपुतेओ जस्स ऊ भवइ देहे। ४. घोषविशुद्धिकारक-जिसका घोष उदात्त-अनुदात्त-स्वरित अंगा वा सुपइट्ठा, लक्खण सिरिवच्छमादीणि इतरे॥ से विशुद्ध है, जो शिष्यों को स्पष्ट सूत्र उच्चारण का अभ्यास
(निभा ५९७७, ५९८०, ५९८१) कराने में कुशल है।
शरीर के कुछ लक्षण ये हैं३. शरीरसम्पदा : आरोह-परिणाह आदि
० मान-उन्मान-प्रमाण युक्त शरीर।
द्र शरीर .."सरीरसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- ० रेखा-मणिबंध से अंगुष्ठपर्यंत रेखा, जो गण, ज्ञान आदि
निर्मल होते हैं।
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