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आगम विषय कोश - २
सूत्र और अर्थपौरुषी में भी कोई बाधा नहीं है। इन सबमें आचार्य ही प्रमाण होते हैं।
गण - परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों का समुदाय । गीतत्थउज्जुयाणं, गीतपुरोगामिणं चऽगीताणं । एसो खलु भावगणो, नाणादितिगं च जत्थत्थि ॥ (व्यभा १३६७)
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जहां गीतार्थ और गीतार्थनिश्रित अगीतार्थ अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए सदा संयम में प्रवर्तमान रहते हैं, वह गण वास्तव में गण है । अथवा जहां ज्ञान, दर्शन और चारित्र - ये तीनों प्रवर्धमान हैं, वह वास्तविक गण है ।
* गणिविहीन गण नही
द्र संघ
गणधर - जो आचार्य-तुल्य होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विहरण करता है। गणधर एक पद है। द्र संघ द्र स्थविरकल्प
* गणधर : साध्वीवर्ग-व्यवस्थापक.
गणावच्छेदक - जो गण के कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है। आचार्य आदि पंचक में से एक ।
द्र संघ द्र आचार्य
द्र क्षेत्रप्रतिलेखना
* गणावच्छेदक : न्यूनतम पर्याय श्रुत * गणावच्छेदक द्वारा क्षेत्र प्रतिलेखना * गणावच्छेदक : जिनकल्प के लिए अधिकृत द्र जिनकल्प गणिसम्पदा - आचार्य की संपदा । आचार्य के अतिशय ।
१. गणिसम्पदा के प्रकार
• आचारसम्पदा : संयमध्रुवयोग आदि
* आचारविनय : सामाचारी में नियोजन द्र आचार्य २. श्रुतसम्पदा : घोषविशुद्धि आदि
३. शरीरसम्पदा : आरोह- परिणाह आदि
* आचार्य सुलक्षण हो
४. वचनसम्पदा के प्रकार
५ वाचना सम्पदा : उद्देशन आदि * वाचना से महानिर्जरा
६. मतिसम्पदा : अवग्रह आदि
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द्र आचार्य
द्रवैयावृत्त्य
● अवग्रह- ईहा - अवायमति : क्षिप्र, बहु • धारणामति के प्रकार
७. प्रयोगसम्पदा : परिषद्परिज्ञान आदि ८. संग्रहपरिज्ञा : क्षेत्र आदि की व्यवस्था १. गणिसम्पदा के प्रकार
...अट्ठविहा गणिसंपदा पण्णत्ता, तं जहा - आयारसंपदा सुतसंपदा सरीरसंपदा वयणसंपदा वायणासंपदा मतिसंपदा पओगसंपदा संगहपरिण्णा णामं अट्ठमा ॥ (दशा ४ / ३ )
गणसंपदा के आठ प्रकार हैं
१. आचारसंपदा
२. श्रुतसंपदा
३. शरीरसंपदा
४. वचनसंपदा
गणिसम्पदा
५. वाचनासंपदा
६. मतिसंपदा
७. प्रयोगसंपदा ८. संग्रहपरिज्ञा ।
• आचारसम्पदा : संयमधुवयोग आदि
...आयारसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - संजम - धुवजोगजुत्ते यावि भवति, असंपग्गहियप्पा, अणियतवित्ती, वुडसीले यावि भवति । ......
''असंपग्गहितप्पत्ति - अनुत्सेकः, अहमाचार्यो बहुश्रुतस्तपस्वी वा सामायारिकुसलो वा, जात्यादिमदेहि वा अमत्तो । अणिएतवत्तित्ति गामे एगरातिए नगरे पंचरातिए अन्न अन्नाए भिक्खायरियाए अडति चउत्थादीहि वा एषणाविसेसेहि वा जतति । विसुद्धसीलो निहुतसीलो अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्थसील इत्यर्थः । (दशा ४/४ चू)
......चरणं तु संजमो तू, तहियं निच्वं तु उवउत्तो ॥ आयरिओ उ बहुस्सुत, तवस्सि जच्चादिगेहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तो, संपग्गहितो भवे सो उ ॥ अणिययचारि अणिययवित्ती अगिहितो वि होति अणिकेतो। निहुयसभाव अचंचल, नातव्वो वुडसील त्ति ॥
(व्यभा ४०८४-४०८६)
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आचारसंपदा के चार प्रकार हैं
१. संयम ध्रुवयोगयुक्तता - चारित्र में सदा समाधियुक्त होना ।
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