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गणिसम्पदा
परपवादीण वा'' उच्चारितमात्रं । बहुगं पंचछ - ग्गगंथसयाणि । बहुविधं नाम लिहति पहारेइ गणेति, अक्खा-णयं कहेति, अगेहि वा उच्चारितं अवगेण्हति । धुवं ण विसारेति । अणिस्सियं न पोत्थयलिहियं अहवा सोउं .....। असंदिग्धं न संकितं । (दशा ४ / १० चू) सीसेण कुतित्थीण व उच्चारितमेत्तमेव ओगिरहे । तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया ॥ बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति विय। अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं ॥ न विविस्सरति धुवं तू, अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं । अणभासियं च गेण्हति णिस्संकित होतेऽसंदिद्धं ॥ (व्यभा ४१०६ - ४१०८)
अवग्रहमति के छह प्रकार हैं
१. क्षिप्र अवग्रहण - शिष्य अथवा परवादी आदि के उच्चारण मात्र से ग्रहण कर लेना ।
२. बहु अवग्रहण - एक साथ बहुत ग्रहण करना। पांच सौ, छह सौ सात सौ श्लोकों को एक साथ ग्रहण करना । ३. बहुविध अवग्रहण - लेखन, दूसरे के द्वारा कथित वचनों का अवधारण, गणना, आख्यान-कथन आदि अनेक क्रियाओं का एक साथ अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा उच्चारित शब्दों का एक साथ अवग्रहण करना ।
४. ध्रुव अवग्रहण - चिरकाल तक विस्मृत न करना । ५. अनिश्रित अवग्रहण - पुस्तक, संभाषण आदि का सहारा लिए बिना ग्रहण करना ।
६. असंदिग्ध अवग्रहण - निःशंकित करना ।
ईहा और अवाय के भी ये ही छह-छह भेद हैं। • धारणामति के प्रकार
....धारणामती छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - बहुं धरेति, बहुविधं धरेति, पोराणं धरेति, दुद्धरं धरेति, अणिस्सियं धरेति, असंदिद्धं धरेति ।'''''' (दशा ४/११)
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धारणामति के छह प्रकार हैं
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१. बहुधारण - विपुलश्रुत को धारण करना ।
२. बहुविधधारण - अनेकविध श्रुतपाठ का एक साथ अवधारण
करना ।
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आगम विषय कोश - २
१३. पुराण धारण- -पूर्व पठित पाठ को धारण करना । ४. दुर्धर धारण - भंगों से गहन पाठ का अवधारण करना । ५. अनिश्रित धारण - बिना किसी अपर आलंबन के स्वयं अवधारण करना ।
६. असंदिग्ध धारण-पाठ को असंदिग्ध रूप में धारण करना। ७. प्रयोगसम्पदा : परिषद् परिज्ञान आदि
......पओगसंपदा चडव्विहा पण्णत्ता, तं जहा- आतं विदाय वादं परंजित्ता भवति, परिसं विदायखेत्तं विदाय ...वत्थं विदाय वादं परंजित्ता भवति ।" (दशा ४/१२)
वत्थं परवादी ऊ, बहुआगमितो न वावि णाऊणं । राया व रायऽमच्चो, दारुणभद्दस्सभावो त्ति ॥ (व्यभा ४११५)
प्रयोगसंपदा के चार प्रकार हैं
१. आत्मपरिज्ञान- वाद-प्रयोग में अपने सामर्थ्य का परिज्ञान । २. परिषद् परिज्ञान - परिषद् या वादी के मत का ज्ञान । ३. क्षेत्रपरिज्ञान - वाद करने के क्षेत्र का परिज्ञान ।
४. वस्तुपरिज्ञान - वाद - काल में निर्णायक के रूप में स्वीकृत सभापति आदि का ज्ञान। परवादी अनेक आगमों का ज्ञाता है या नहीं तथा राजा, अमात्य आदि कठोर स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले - यह जानना वस्तुपरिज्ञान है। ८. संग्रहपरिज्ञा : क्षेत्र आदि की व्यवस्था
गुरुं संपूता भवति । .....
संगहपरिण्णासंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाबहुजणपाओग्गताए वासावासासु खेत्तं पडिलेहित्ता भवति, बहुजणपाओग्गताए पाडिहारियपीढफलगसेज्जा- संथारयं ओगेण्हित्ता भवति । कालेणं कालं समाणइत्ता भवति, (दशा ४ / १३) वासे बहुजणजोगं, वित्थिण्णं जं तु गच्छपायोग्गं । अहवावि बाल-दुब्बल-गिलाण - आदेसमादीणं ॥ खेत्तऽसति असंगहिया, ताधे वच्चंति ते उ अन्नत्थ । न उ मइलेंति निसेज्जा, पीढगफलगाण गहणम्मि ॥ वितरे न तु वासासुं, अन्ने काले उ गम्मतेऽण्णत्थ । पाणा सीतल - कुंथादिया य तो गहण वासासुं ॥ जं जम्मि होति काले, कायव्वं तं समाणए तम्मि । सज्झायपेहउवधी, उप्पायण भिक्खमादी
य ॥
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