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आगम विषय कोश - २
की समृद्धि में हेतुभूत होती है और उससे आचार्य को सुयश प्राप्त होता है - वे लोकमान्य पुरुष बन जाते हैं ।
० सत्त्व - महान् संकटकाल में भी अदीन ।
० वपु - तेजस्वी आभा वाला शरीर ।
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• अंगोपांग - सुप्रतिष्ठित-सुसंस्थित अवयव ।
० लक्षण - श्रीवत्स, स्वस्तिक आदि लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों से युक्त शरीर ।
४. वचनसम्पदा : आदेयवचन आदि
....... वयणसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाआदिज्जवणे यावि भवति, महुरवयणे यावि भवति, अणिस्सियवयणे यावि भवति, असंदिद्धभासी यावि भवति ॥ (दशा ४/७ चू) ......आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं ॥ अहवा अफरुसवयणो, खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा । निस्सियकोधादीहिं, अहवा वी रागदोसेहिं ॥ अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं । विवरीयमसंदिद्धं, वयणेसा संपया चउहा॥ (व्यभा ४०९५-४०९७) वचनसंपदा के चार प्रकार हैं
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१. आदेयवचन - जिसका वचन सबके लिए ग्राह्य होता है । २. मधुरवचन - इसके तीन अर्थ हैं - अर्थयुक्तवचन । अपरुषवचन - जो वचन रूखा और कठोर नहीं होता। क्षीरास्रव आदि लब्धियों से युक्त वचन ।
३. अनिश्रितवचन - इसके दो अर्थ हैं- जो वचन क्रोध से उत्पन्न न हो। जो वचन राग-द्वेष आदि से उत्पन्न न हो। ४. असंदिग्धवचन - इसके तीन अर्थ हैं— सर्वभाषाविशारद अथवा व्यक्त वचन वाला। स्पष्ट वचन बोलने वाला। निर्णायक शब्द का प्रयोग करने वाला ।
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अव्यक्त, अस्पष्ट अर्थ वाला और अनेक अर्थों वाला वचन संदिग्ध वचन है ।
५. वाचनासम्पदा : उद्देशन आदि
......वायणासंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाविजयं उद्दिसति, विजयं वाएति, परिनिव्वावियं वाएति, अत्थनिज्जव यावि भवति ।......
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गणिसम्पदा
विजयं उद्दिसति - विचिन्त्य विचिन्त्य जो जस्स जोगो तं तस्स उद्दिसति सुत्तमत्थं वा । परिणामिगादि परिक्खति – अभायणं न वाएति, जहा अपक्कमट्टियभायणे अंबभायणे वा खीरं न छुब्भति, जइ छुब्भइ विणस्सति । विजयं वाएति जत्तियं तरति । सो गिण्हितुं परिणिव्वविया जाधे से परिजितः ताहे से अण्णं उद्दिसति जाहकवत् । अत्थजिव-अर्थाभिज्ञो अत्थेण वा तं सुत्तं निव्वहति । अत्थं पितरस कधेति, गीतत्यत्ति भणितं भवति । (दशा ४/८ चू)
वाचनासंपदा (अध्यापन कौशल) के चार प्रकार हैं१. विदित्वोद्देशन - शिष्य की योग्यता को जानकर उद्देशन करना। शिष्य परिणामी है या नहीं - इसका परीक्षण कर अपात्र को वाचना न देना । अपक्व मिट्टी के भाजन में या आम्लपात्र में दूध नहीं डाला जाता, यदि डाला जाता है, तो वह नष्ट हो जाता है ।
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२. विदित्वावाचना - योग्यता के आधार पर समुद्देशन करना । ३. परिनिर्वाप्य वाचना- पहले दी गई वाचना को पूर्ण हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देना । जैसे जाहक (सैला) दुग्ध पात्र में से थोड़ा-थोड़ा दूध पीकर उसके किनारे चाटता रहता है, जिससे दूध की एक भी बूंद नीचे नहीं गिरती । ४. अर्थनिर्यापणा - सूत्र के अर्थ और उसके पौर्वापर्य का बोध कराकर शिष्य को गीतार्थ बनाना ।
६. मतिसम्पदा : अवग्रह आदि
....मतिसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - -ओग्गहमतिसंपदा, ईहामतिसंपदा, अवायमतिसंपदा, धारणामतिसंपदा ॥ (दशा ४ / ९ ) मतिसंपदा के चार प्रकार हैं- १. अवग्रहमतिसंपदा २. ईहामतिसंपदा ३. अवायमतिसंपदा ४. धारणामतिसंपदा । ० अवग्रह - ईहा - अवायमति : क्षिप्र, बहु.....
..... ओग्गहमती छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - खिप्पं ओगिहति, बहुं ओगिण्हति, बहुविहं ओगिण्हति, धुवं ओगिण्हति, अणिस्सियं ओगिण्हति, असंदिद्धं ओगिण्हति । एवं ईहामती वि, एवं अवायमती वि ॥
खिप्पं ओगिण्हति - उच्चारितमात्रमेव सिस्से पुच्छंते
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