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आगम विषय कोश-२
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कर्म
करेति। एतेसु अंतराइयं बंधति एतेसु हेऊसु णिक्कारणे ७. गोत्रकर्म बंध के हेतु-इसके दो प्रकार हैं-उच्चगोत्र, वटुंतस्स पच्छित्तं भवति। (निभा ३३२२ की चू) नीचगोत्र । जो अर्हतों और साधुओं का भक्त है, अर्हत्-प्रणीत
जानावरणीय कर्मबंध केलेत जिसके पास जान सीखा श्रुत और जीव आदि पदार्थों में रुचि करता है, अप्रमत्तता से है, उस व्यक्ति के नाम का गोपन करता है।
संयम आदि गुणों का प्रेक्षक है, वह उच्चगोत्र का तथा इसके ० जो ज्ञानी पुरुष का प्रत्यनीक है।
विपरीत हेतुओं से नीचगोत्र का बंध करता है। ० जो अध्ययन करने वाले के विघ्न उपस्थित करता है।
८. अंतराय कर्म बंध के सामान्य हेतु-जो प्राणवध, मृषावाद, ० जो व्यक्ति के ज्ञान का उपघात करता है।
अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में रतिबंध (प्रेमानुबंध) ० जो ज्ञानी पुरुष से प्रद्वेष करता है।
करता है, जिनपूजा में और मोक्षमार्ग में विघ्न उपस्थित इस प्रकार की प्रवृत्तियों से पांच प्रकार के ज्ञानावरण
करता है, वह अंतराय कर्म का बंध करता है। कर्म का बंध होता है।
इन हेतुओं में निष्कारण प्रवृत्त होने वाला प्रायश्चित्त का २. इसी प्रकार की सामान्य प्रवृत्ति से नवविध दर्शनावरण का ।
भागी होता है। बंध होता है।
६. द्रव्य बंध : कायप्रयोग आदि ३. वेदनीयकर्म बंध के हेतु-भूतानुकम्पा, व्रतपालन, क्षांति- दव्वपओग-वीससप्पओग स-मूलउत्तरे चेव। सम्पन्नता, दानरुचि और गुरुभक्ति से सातवेदनीय तथा इसके मूलसरीरसरीरी, सादीय अणादिए चेव॥ विपरीत प्रवृत्ति से असातवेदनीय का बंध होता है।
निगलादि उत्तरो वीससा उ सार्ड अणादिओ चेव। ४. मोहनीय कर्मबंध के हेतु- इसके दो भेद हैं-दर्शनमोह
खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते. काले कालो जहिं जो उ॥ और चारित्रमोह।
पओगबंधो तिविधो-मणादि। मणस्स मूलप्पजो अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, तपस्वी, श्रुत, धर्म और संघ
ओगबंधो-जे पढमसमए गेण्हंति पोग्गला मणेतुकामो का प्रत्यनीक होता है, वह दर्शनमोहनीय का बंध करता है।
मणपज्जत्तीए वा। सेसो उत्तरबंधो।एवं वयीए वि।जो सो तीव्र कषाय, गाढ मोह और राग-द्वेषसम्पन्नता से
कायप्पओगबंधो सो दुविधो-मूलबंधो य उत्तरबंधो य। चारित्रमोहनीय का बंध करता है।
मूलबंध-सरीरसरीरिणो जो संजोगबंधो स मूलबंधो ५. आयुष्य कर्म बंध के हेतु० नरकायु-मिथ्यात्व, महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार, नि:शीलता
सव्वबंधो वा। (दशानि १३८, १३९ चू) और रौद्रध्यान से नरकायु का बंध होता है।
द्रव्यबंध दो प्रकार का है-प्रयोगबंध और विस्रसाबंध। ० तिर्यंचायु-उन्मार्गदेशना, सन्मार्गविप्रणाश, माया, शठशीलता,
प्रयोगबंध तीन प्रकार का है-मनप्रयोगबंध, वचनप्रयोगबंध सशल्यमरण आदि हेतुओं से तिर्यंचायु का बंध होता है। और कायप्रयोगबंध। मन का मूलप्रयोगबंध है-मनन करने ० मनुष्यायु-अव्रती जीव के प्रतनुकषाय, दानरुचि और भद्र __ के लिए मन:पर्याप्ति के द्वारा पहले समय में गृहीत पुद्गल। प्रकृति से मनुष्यायु का बंध होता है।
शेष उत्तरबंध है। वचनप्रयोगबंध भी इसी प्रकार है। जो ० देवायु-देशव्रत, सर्वव्रत, बालतप, अकामनिर्जरा और काय- प्रयोगबंध है, वह दो प्रकार का है-मूलबंध और सम्यग्दृष्टि से देवायु का बंध होता है।
उत्तरबंध। शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध ६. नामकर्म बंध के हेतु-इसके दो प्रकार हैं-शुभ और अथवा सर्वबंध कहलाता है। वह दो प्रकार का होता हैअशुभ । जो मन-वचन-काययोगों से वक्र, मायावी और ऋद्धि- सादि और अनादि। रस-सात-इस त्रिविध गौरव से प्रतिबद्ध है, वह सामान्यतः निगड आदि उत्तरबंध है। वित्रसाबंध सादि और अनादि इन हेतुओं से अशुभ नामकर्म का और इसके विपरीत प्रवृत्ति दो प्रकार का होता है। जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्रबंध है से शुभनामकर्म का बंध करता है।
और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है।
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