________________
काल
१८०
आगम विषय कोश-२
५. स्वाध्याय हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग
जति दंतो पडितो सो पयत्ततो गवेसियव्वो. जड दिट्ठो तो हत्थसतातो परं विगिंचियव्वो। अह ण दिट्ठो तो उग्घाडकाउस्सग्गं काउं सज्झायं करेंति। .
(निभा ६१११ की चू) उपाश्रय में कहीं किसी का दांत गिर जाए तो उसकी गवेषणा करे, मिल जाने पर सौहाथ की दूरी पर उसका परिष्ठापन करे। यदि न मिले तो उद्घाट कायोत्सर्ग कर स्वाध्याय प्रारंभ करे। ६. अनुयोगहेतु कायोत्सर्ग अनुयोगारंभनिमित्तं कायोत्सर्गम्।
(व्यभा की अनुयोग का प्रारंभ करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। ७. कायोत्सर्ग पूर्ण करने की विधि ..... णमोक्कारे, काउस्सग्गे य पंचमंगलए।....
(निभा ६१३४) ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं'-इस पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र के पाठ से कायोत्सर्ग को पूर्ण करे। ८. कायोत्सर्ग की फलश्रुति : भेदज्ञान
जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे। इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति॥
__ (व्यभा ४३९९) जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश भिन्न है, वैसे ही मेरा 'शरीर भिन्न है. आत्मा भिन्न है। इस भेदज्ञान से भावित होना ही कायोत्सर्ग की फलश्रति है। * कायोत्सर्ग के प्रकार, प्रयोजन, परिणाम आदि
द्र श्रीआको १ कायोत्सर्ग कारक सूत्र-आगम-सम्मत सिद्धांत की अपाय-दर्शन
पूर्वक सिद्धि करने वाले सूत्र। द्र सूत्र काल-चेतन और अचेतन के परिणमन में हेतुभूत
काल्पनिक द्रव्य। १. काल के एकार्थक २.कालमास के प्रकार
० अहोरात्र संख्याज्ञान हेतु करणगाथा | ३. नक्षत्रमास : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग । * अर्थक्षेत्र आदि नक्षत्र
द्र शवपरिष्ठापन ४. अभिवर्धित वर्ष और चन्द्रवर्ष ५. अप्रशस्त नक्षत्र : संध्यागत आदि ६. प्रशस्त भाव : उच्च स्थानगत ग्रह ७. अनेकविध गणना ०शीर्षप्रहेलिका..."
* नौवें पूर्व में कालज्ञान-वर्णन द्र आगम ___* श्रुताभ्यास से कालज्ञान
द्र जिनकल्प १. काल के एकार्थक "कालो त्ति व समयो त्ति व, अद्धा कप्पो त्ति एगढ़।
(व्यभा २०५७) काल, समय, अद्धा और कल्प-ये एकार्थक हैं। २. कालमास के प्रकार ........"णक्खत्तादी व पंचविहो॥ अहोरत्ते सत्तवीसं, तिसत्तसत्तट्ठिभाग णक्खत्तो। चंदो अउणत्तीसं, बिसट्ठि भागा य बत्तीसं ।। उडुमासो तीसदिणो, आइच्चो तीस होइ अद्धं च। अभिववितो य मासो, ........॥ एक्कत्तीसं च दिणा, दिणभागसयं तहेक्कवीसं च। अभिवड्डीओ उ मासो, चउवीससतेण छेदेणं॥
(निभा ६२८३-६२८६) कालमास के पांच प्रकार हैं१. नक्षत्रमास-जितने काल में चन्द्रमा नक्षत्र मण्डल का परिभोग करता है, वह नक्षत्रमास है। इसका परिमाण है २७४ अहोरात्र । २. चन्द्रमास-इसका परिमाण है-१३ अहोरात्र। ३. ऋतुमास-इसका परिमाण है-पूरे तीस अहोरात्र । ४. आदित्यमास-इसमें साढ़े तीस अहोरात्र होते हैं। (सूर्य जितने समय में एक राशि का भोग करता है, उतने समय को एक आदित्यमास कहते हैं।) ५. अभिवर्धितमास-यह अधिक मास होता है। इसमें ३१९२९अहोरात्र होते हैं।
रिउत्ति वा कम्ममासो वा एगटुं। (निभा ६२८७ कीचू) ऋतुमास और कर्ममास एकार्थक हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org