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आगम विषय कोश-२
१७९
कायोत्सर्ग
ठाइत्तए॥ तत्थिमा पढमा पडिमा-अचित्तं खलु उव- ५. समपाद-पैरों को समश्रेणि में स्थापित कर खड़े रहना। सज्जिस्सामि, अवलंबिस्सामि, कारण विपरिक्कमिस्सामि, ६. एकपाद-एक पैर पर खड़े रहना। सवियारं ठाणंठाइस्सामि...॥
७. गृद्धोड्डीन-उड़ते हुए गीध के पंखों की भांति बाहों को अहावरा दोच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि- फैलाकर खड़े रहना।-भ आ २२५) स्सामि, अवलंबिस्सामि, काएण विपरक्कि-मिस्सामि, णो ३.कायोत्सर्ग कौन-सा ध्यान? सवियारं ठाणं ठाइस्सामि॥
योगनिरोधात्मकं ध्यानं त्रिधा, तद्यथा, काययोगअहावरा तच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि- निरोधात्मकं, वाग्योगनिरोधात्मकं, मनोयोगनिरोधात्मकं स्सामि, अवलंबिस्सामि, णो काएण विपरिक्कमिस्सामि, च, तत्र कायोत्सर्गः किं ध्यानं? उच्यते त्रिविधमपि, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि॥
मुख्यतस्तु कायिकम्। (व्यभा १२१ की वृ) ___अहावरा चउत्था पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जि
योगनिरोधात्मक ध्यान के तीन प्रकार हैं-मनोयोगस्सामि, णो अवलंबिस्सामि, णो काएण विपरिक्कमि
निरोध, वचनयोगनिरोध और काययोगनिरोध। कायोत्सर्ग में स्सामि, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, वोसट्ठकाए,
तीनों ध्यान होते हैं, मुख्यरूप से कायिक ध्यान होता है। वोसट्ठकेसमंसु-लोम-णहे सण्णिरुद्धंवा ठाणं ठाइस्सामि।
कायचेटुं निरंभित्ता, मणं वायं च सव्वसो। (आचूला ८/१६-२०)
वट्टति काइए झाणे, सुहुमुस्सासवं मुणी॥ भिक्षु चार प्रतिमाओं से स्थानस्थित होता है
न विरुझंति उस्सग्गे, झाणे वाइय-माणसा। पहली प्रतिमा-अचित्त भूमि में स्थित होऊंगा (कायोत्सर्ग
तीरिए पुण उस्सग्गे, तिण्णमण्णतरं सिया॥ करूंगा), अचित्त भित्ति आदि का सहारा लूंगा, शरीर का परिस्पन्दन(हाथ-पैर का संकुचन-प्रसारण) करूंगा, सविचार
(व्यभा १२२, १२३) (हलनचलनयुक्त) कायोत्सर्ग करूंगा।
कायिकध्यान में कायिकप्रवृत्ति तथा मनोयोग और ___ दूसरी प्रतिमा-अचित्त भूमि में रहूंगा, सहारा लूंगा,
वचनयोग का सर्वात्मना निरोध कर कायोत्सर्ग किया जाता हाथ-पैर का संकचन-प्रसारण करूंगा. चंक्रमण नहीं करूंगा है। इसमें सूक्ष्म उच्छ्वास आदि का निरोध नहीं होता। तीसरी प्रतिमा-अचित्त भूमि में रहूंगा, सहारा लूंगा,
कायोत्सर्ग में और वाचिक-मानसिक ध्यान में विरोध संकुचन-प्रसारण नहीं करूंगा, चंक्रमण नहीं करूंगा। नहीं है। मनोयोग और वचनयोग का विषयांतर रूप से निरोध
चौथी प्रतिमा-अचित्त भूमि में कायोत्सर्ग करूंगा. न होता है, कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर मानसिक, वाचिक, कायिकदीवार का सहारा लूंगा, न संकुचन-प्रसारण करूंगा, न हलन- तीनों में से कोई भी ध्यान किया जा सकता है। भंगश्रुत चलन करूंगा-इस प्रकार देह का विसर्जन कर, केश-श्मशू- (दृष्टिवाद आदि विकल्पप्रधान श्रुत) के गुणन में तीनों ध्यान रोम-नख के परिकर्म से मुक्त होकर श्वासोच्छवास के अतिरिक्त एक साथ होते हैं। अन्य प्रवृत्तियों में यह संभव नहीं है। प्रवृत्तियों का निरोध कर कायोत्सर्ग करूंगा।
४. देवता-आह्वान के लिए कायोत्सर्ग (खड़े रहकर किए जाने वाले स्थानों को ऊर्ध्व-स्थान
साधू"पंथं च अजाणमाणा भीमाडविं पवज्जेज्जा। योग कहा जाता है। उसके सात प्रकार हैं-१. साधारण- तत्थ वसभावणदेवताए उस्सग्गं करेंति, सा आगंपिया खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना। दिसिभागं पंथं वा कहेज्ज। (निभा ५६९५ की चू) २. सविचार-जहां स्थित हो, वहां से दूसरे स्थान में जाकर साधु यात्रापथ में सार्थ से च्युत हो गए, मार्ग जानते एक प्रहर, एक दिन आदि निश्चित काल तक खड़े रहना। नहीं थे, भयंकर अटवी में चले गए। वृषभ साधु ने वनदेवी ३. संनिरुद्ध-जहां स्थित हो, वहीं निश्चल होकर खड़े। का आवाहन करने के लिए कायोत्सर्ग किया। उसका आसन रहना।
कम्पित हुआ, वह प्रकट हुई और उसने सही मार्ग का दिशा४. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना।
दर्शन किया।
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