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आगम विषय कोश-२
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कृतयोगी
भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं। जाएगा। उस वणिक् ने अश्व पर आरूढ़ होकर बारह योजन णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव॥ तक जाने के पश्चात् मुड़कर पीछे देखा। भूत ने तत्काल वहां एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ। भृगुकच्छ के उत्तरी भाग में 'भूततडाग' नाम का तालाब णिज्जित इसीतलागे ..............॥ निर्मित कर दिया।
(बृभा ४२२०-४२२३) २. ऋषिपाल व्यंतर-विक्रय-तोसलीनगर का एक वणिक् अवन्तिजनपद के अधिपति चण्डप्रद्योत नप के उज्जयिनी में आया और एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक शासनकाल में उज्जयिनी में नौ कुत्रिकापण थे।
वानव्यंतर को खरीदा। आपणिक ने कहा-इस वानव्यंतर को १. भूत-विक्रय-भृगुकच्छ के एक वणिक् को भूतों के अस्तित्व
निरंतर कार्य में व्याप्त रखना, अन्यथा यह तुमको मार डालेगा। पर विश्वास नहीं था। एक बार वह वणिक् उज्जयिनी नगरी
वणिक् उसे तोसलीनगर ले गया और अपने सारे कार्य करवाकर में आया। उसे ज्ञात हआ कि कत्रिकापण में भत आदि प्राप्त अंत में उसी प्रकार खंभे पर चढ़ने-उतरने की बात कहकर होते हैं। वह वहां गया और कुत्रिकापण के स्वामी से 'भूत' उसे पराजित कर दिया। उसने भी 'ऋषितडाग' नामक तालाब देने की बात कही। उस आपणिक (दुकानदार) ने सोचा- बना दिया। यह वणिक् मुझे धोखा देना चाहता है, इसलिए मैं इससे कृतयोगी-अध्ययन, तप, वैयावृत्त्य आदि में अभ्यस्त । 'भूत' का इतना मूल्य मांगूं कि यह उसे खरीद ही न सके।
कृतयोगी सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रंथधरः स्थविरः। उसने कहा-यदि तुम मुझे एक लाख मुद्राएं दोगे तो मैं तुम्हें
(व्यभा २३६९ की वृ) भूत दूंगा। वणिक् ने इतना मूल्य देना स्वीकार कर लिया। तब आपणिक बोला--देखो, तुमको पांच दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
छेदग्रंथों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाला फिर मैं तुम्हें भूत दे दूंगा।
स्थविर कृतयोगी है। आपणिक ने तेले की तपस्या कर अपने अधिष्ठाता देव कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधरः आसीद् नेदानी, से पछा । देव ने कहा-तम वणिक को निर्धारित मूल्य में भूत सोऽर्थे समागच्छति गणं धारयितुं समर्थः। दे दो। पर उसको कह देना कि यह भूत विचित्र है। इसे
(व्यभा २३३५ की वृ) सतत कार्य में व्यापृत रखना होगा। यदि तुम इसको कोई कार्य
जो पहले सूत्र और अर्थ-दोनों को धारण करता था नहीं दोगे, तो यह तुम्हें मार डालेगा। पांचवें दिन वणिक
किन्तु अब उभयधर नहीं है, वह कृतयोगी है। यदि वह आया और भूत की मांग की। आपणिक ने देवता द्वारा कथित
अर्थधर है तो गणधारण कर सकता है। बात बताकर उसे भूत दे दिया। भूत को साथ ले वणिक् भृगुकच्छ चला गया। वहां जाते ही भूत बोला-मझे कार्य * कृतयोगी और गीतार्थ में अंतर
द्र गीतार्थ बताओ। वणिक् ने कार्य बताया। भूत ने उसे तत्काल संपन्न
कृतयोगी तपःकर्मणि कृताभ्यासः। कर दूसरे कार्य की मांग की। वणिक के सारे कार्य संपन्न हो
(बृभा ४९४६ की वृ) गए। भूत ने फिर नए कार्य की मांग की, तब वणिक् ने
कृतयोगो नाम कर्कशतपोभिरनेकधा भावितात्मा। बुद्धिमत्ता से कहा-तुम यहां एक ऊंचा स्तम्भ गाड़ो और उस
(व्यभा ५३८ की वृ) पर तब तक चढ़ते-उतरते रहो, जब तक कि मैं तुम्हें दूसरे काम में नियोजित न करूं। यह सुनते ही भूत ने कहा-मैं
जिसने तप:कर्म का अभ्यास किया है, अनेक बार कठोर हारा, तुम जीते। मैं अपनी पराजय के स्मृतिचिह्न के रूप में तपोयोग से अपने आपको भावित किया है, वह कृतयोगी है। एक तडाग बनाना चाहता हूं। तुम जाते हुए जब तक पीछे न किलम्मति दीघेण वि तवेण..... । मुड़कर नहीं देखोगे, उतने क्षेत्र में एक तालाब निर्मित हो
(व्यभा ७८५)
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