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कायोत्सर्ग
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आगम विषय कोश-२
आतापना काल में डेढ-दो लाख गाथाओं का स्वाध्याय कर को न खुजलाना), अनिष्ठीवन (न थूकना) तथा शरीर का लेते। कभी-कभी वे कहते-'आज तो श्रुतपरावर्त्तना में इतनी परिकर्म और विभषा न करना।-भ २५/५७१) तन्मयता आ गई कि आतप का पता ही नहीं लगा, नींद भी
* कायक्लेश की निष्पत्ति द्र श्रीआको १ कायक्लेश आने लगी।' सूर्य का ताप सहते-सहते उनके शरीर की चमड़ी सूखकर काली हो गई, किन्तु मनःप्रसत्ति और मुख-मुस्कान कायोत्सर्ग-शारीरिक प्रवृत्ति और शारीरिक ममत्व का की आभा निरंतर बढ़ती गई। यह क्रम वि. सं. २००० से
विसर्जन। २०१६ तक चला।-शासनसमुद्र भाग १४ प १०५, १०६) [.१. स्थानस्थित-कायोत्सर्गस्थित ५. आतापना-विधि
२. स्थानप्रतिमा के प्रकार ".."बहिया गामस्स वा जाव संनिवेसस्स वा उट्ठे ३. कायोत्सर्ग : कौन-सा ध्यान ? बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहीए एगपाइयाए __ * कायोत्सर्ग और ध्यान
द्र ध्यान ठिच्चा आयावणाए आयावेत्तए। (क ५/१९) * कायोत्सर्ग और प्रतिमा
द्र भिक्षुप्रतिमा ग्राम यावत् सन्निवेश के बाहर आतापना भूमि में दोनों
* कायगुप्ति : कूर्म दृष्टांत
द्र गुप्ति भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सम्मुख खड़े होकर एकपादिका
४. देवता-आह्वान के लिए कायोत्सर्ग एक पैर को ऊपर उठाकर आतापना ली जाती है। (समपादिका,
५. स्वाध्याय हेतु उद्घाट कायोत्सर्ग उत्तानशयन, पर्यंकासन आदि आसनों का भी यथाशक्ति,
| ६. अनुयोगहेतु कायोत्सर्ग
___ * स्वाध्यायभूमि और कायोत्सर्ग द्र स्वाध्याय यथारुचि प्रयोग किया जाता है।)
७. कायोत्सर्ग पूर्ण करने की विधि ६. साध्वी और आतापना
८. कायोत्सर्ग की फलश्रुति : भेदज्ञान नो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्स"आयावणाए
* भेदज्ञान से उपसर्गों में अविचलन द्र अनशन आयावेत्तए॥
* जिनकल्प और कायोत्सर्ग
द्र जिनकल्प ___ कप्पड़ से उवस्सयस्स अंतोवगडाए संघाडिपडि
* कायोत्सर्ग(व्युत्सर्ग) प्रायश्चित्त द्र प्रायश्चित्त बद्धाए समतलपाइयाए पलंबियबाहियाए ठिच्चा आया
१. स्थानस्थित-कायोत्सर्गस्थित वणाए आयावेत्तए॥
(क ५/१९, २०)
सम्यग्निरुद्धं स्थानं स्थास्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय एयासि णवण्हं पी, अणुणाया संजईण अंतिल्ला।
कायोत्सर्गव्यवस्थितो मेरुवन्निष्प्रकम्पस्तिष्ठेत्। सेसा नाणुन्नाया, अट्ठ तु आतावणा तासिं॥
(आचूला ८/२० की वृ) (बृभा ५९५०)
मैं मानसिक, वाचिक और कायिक (श्वासोच्छ्वास के साध्वी गांव के बाहर आतापना नहीं ले सकती। वह
अतिरिक्त सब) प्रवृत्तियों का सम्यक निरोध कर स्थान में स्थित उपाश्रय के भीतरी भाग में संघाटी से प्रतिबद्ध, बाहयुगल को
होऊंगा (कायोत्सर्ग करूंगा)-इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग घुटनों की ओर प्रलम्बित कर समपादिका आसन में स्थित
में अवस्थित साधक मेरु की भांति निष्प्रकम्प रहता है। होकर आतापना ले सकती है।
उद्धट्ठाणं
ठाणायतं.......... आतापना के नौ प्रकारों में साध्वी के लिए समपादिका
(बृभा ५९५३) नामक अंतिम प्रकार ही अनज्ञात है, शेष आठ प्रकार अनुज्ञात नहीं हैं।
स्थानायत का अर्थ है ऊर्ध्वस्थान-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग (कायक्लेश अनेक प्रकार का है-स्थानायतिक, करना। (बैठकर और लेटकर भी कायोत्सर्ग किया जाता है।) उत्कुटकासन, प्रतिमास्थायी, वीरासनिक, नैषधिक, आतापना, २. स्थानप्रतिमा के चार प्रकार अपावृत (सर्दी में वस्त्रविहीन) रहना, अकण्डूयन (शरीर ..."अह भिक्खू इच्छेज्जा चउहि पडिमाहिं ठाणं
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