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कर्म
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आगम विषय कोश-२
१६. राष्ट्र के नायक तथा प्रचुर यशस्वी निगम-नेता श्रेष्ठी ५. प्रत्येक कर्मबंध के सामान्य हेतु को मार डालना।
___णाणं जस्स समीवे सिक्खियं तं निण्हवति। नाणि१७. जन-नेता तथा जो प्राणियों के लिए द्वीप (आश्वासनभूत) पुरिसस्स पडिणीओ। अधिज्जंतो वा अंतरायं करेति। और त्राण है, ऐसे व्यक्ति को मार डालना।
जीवस्स वा णाणोवघायं करेति। णाणिपुरिसे वा पदोसं १८. जो व्यक्ति प्रव्रज्या के लिए उपस्थित है अथवा जो करेति। एवमादिएहिं पंचविहं णाणावरणं बज्झइ। प्रवजित होकर संयत और सुतपस्वी हो गया, उसे बरगला एतेसुचेव सविसेसु नवविधं दंसणावरणं बज्झति। कर, फुसलाकर या बलात् धर्म से भ्रष्ट करना।
भूताणुकंपयाते वयाणुपालणाते खंतिसंपण्णयाए १९. अनंतज्ञानी-अनन्तदर्शी अर्हत् का अवर्णवाद बोलना। दाणरुईए गुरुभत्तीते एतेहिं सातावेदणिज्ज बज्झति। २०. द्वेषवश नैतृक (मोक्ष की ओर ले जाने वाले) मार्ग के विवरीयहेऊहिं असातं। बहुत प्रतिकूल चलना तथा उसकी निंदा के द्वारा अपनी ___ मोहणिज्जं दुविधं-दसणमोहं चरित्तमोहं च। तत्थ आत्मा को भावित करना।
दसणमोहे अरहंतपडिणीययाए एवं सिद्ध-चेतिय-तवस्सि२१. जिन आचार्य अथवा उपाध्याय के पास श्रुत और विनय सुय-धम्म-संघस्स य पडिणीयत्तं करेंतो दंसणमोहं बंधति। (चारित्र) की शिक्षा प्राप्त की, उन्हीं की निंदा करना। तिव्वकसायताए बहुमोहयाते रागदोससंपन्नयाते चरित्तमोहं २२. आचार्य और उपाध्याय की सम्यक् प्रकार से सेवा- बंधति। शुश्रूषा तथा उनकी पूजा नहीं करना और अभिमान करना। आउयं चउव्विहं-तत्थ णिरयाउयस्स इमे हेऊ२३. अबह श्रत होते हए भी श्रत के द्वारा अपना ख्यापन करना मिच्छत्तेण महारंभयाते महापरिग्रहाते कणिमाहारेणं तथा किसी व्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर 'बहुश्रुत मुनि के बारे में णिस्सीलयाते रुद्दज्झाणेण य णिरयाउं णिबंधति। सुना है, वे आप ही हैं ?''हां', मैं ही हूं, मैंने घोषविशुद्धि का तिरियाउयस्स इमे हेतू-उम्मग्गदेसणाते संतमग्गअभ्यास किया है, बहुत ग्रन्थों का पारायण किया है-इस विप्पणासणेणं माइल्लयाते सढसीलताते ससल्लमरणेणं प्रकार स्वाध्याय का निर्वचन करना।
एवमादिएहिं तिरियाउयं निबंधति। २४. अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी के रूप में ख्यापन करना। इमे मणुयाउयहेउणो-विरयविहूणो जो जीवो २५. सहकार लेने के लिए ग्लान के उपस्थित होने पर समर्थ तणुकसातो, दाणरतो, पगतिभद्दयाए मणुयाउयं बंधति। होते हुए भी 'यह मेरी सेवा नहीं करता है' -इस दृष्टि से देवाउयहेतू इमे-देसविरतो सव्वविरतो बालतवेण उसकी सेवा नहीं करना, शठ, माया-प्रज्ञान (छद्मग्लानवेषी), अकामणिज्जराए सम्मद्दिट्ठियाए य देवाउयं बंधति।। पाप से पंकिल चित्त वाला होना।
नाम दुविहं-सुभासुभं। तत्थ सामण्णतो असुभे य २६. सर्व तीर्थों के भेद के लिए कथा और अधिकरण का इमे हेतू-मण-वय-कायजोगेहिं वंको मायावी तिहिं बार-बार संप्रयोग करना।
गारवेहिं पडिबद्धो। एतेहिं असुभं णामं बज्झति। एतेहिं २७. श्लाघा अथवा मित्रगण के लिए अधार्मिक योग (निमित्त, चेव विवरीएहिं सुभं णामं बज्झइ। वशीकरण आदि) का बार-बार संप्रयोग करना।
सुभगोत्तस्स इमे हेतू-अरहंतेसु य साहूसु य भत्तो २८. मानुषी अथवा पारलौकिक भोगों का अतृप्तभाव से अरहंतपणीएण सुएण जीवादिपदत्थे य रोयंतो, अप्पआस्वादन करना।
माययाए संजमादिगुणप्पेही य उच्चागोयंबंधति।विवरीएहिं २९. देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का णीयागोयं। अवर्णवाद बोलना-उनका अपलाप करना।
सामण्णतो पंचविहंतराए इमो हेतू-पाणवहे मुसा३०. जिनेश्वर की भांति पूजे जाने की वांछा से देव, यक्ष और वाते अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे य एतेसु रइबंधगरे, गुह्यक को नहीं देखते हुए भी कहना कि 'मैं उन्हें देखता हूं।' जिणपूयाए विग्घकरो, मोक्खमग्गं पवजंतस्स जो विग्धं
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