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कर्म
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आगम विषय कोश-२
९. बालवीर्य आदि और कर्मबंध
११. संहनन : परिणाम और कर्मबंध अहवा बालादीयं, तिविहं विरियं समासतो होति। देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडिय बंधी अबंधी य॥ आसज्ज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो। तम्हा ण सव्वजीवा, उबंधगा व बंधणा तुल्ला। __..यः सेवार्त्तसंहननी जघन्याबलो जीवस्तस्य अधिकिच्च संपरागं, इरियावहिबंधगा तुल्ला॥ परिणामोऽपि शुभोऽशुभो वा मन्द एव भवति न तीव्रः,
(बुभा ३९४९, ३९५०) ततः शुभाऽशभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव, अत वीर्य के तीन प्रकार हैं
एवास्योर्ध्वगतौ कल्पचतुष्ट्यादूर्ध्वम् अधोगतौ नरकबालवीर्य-असंयत व्यक्ति का असंयम विषयक वीर्य।
पृथ्वीद्वयादध उपपातौ न भवति । एवं कीलिकादिबालपण्डितवीर्य-देशविरत व्यक्ति का संयमासंयम विषयक संहनेनिष्वपि..."।
(बृभा ३९४८ वृ) वीर्य।
संहनन छह प्रकार का होता है-वज्रऋषभनाराच, पण्डितवीर्य-सर्वविरत व्यक्ति का सर्वसंयम विषयक वीर्य। ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवाते । संहनन
इन तीनों प्रकार के प्राणियों के कर्मबंध भी भिन्न- जनित शरीरबल वीर्य कहलाता है। संहननजनित बल के भिन्न होता है। बालवीर्यवान् प्रभूततर, बालपण्डित-वीर्यवान् सदृश ही प्राणियों के परिणाम होते हैं। जैसे सेवार्त संहननी अल्पतर और पण्डितवीर्यवान् अल्पतम कर्मबंध करता है। प्राणी जघन्य बल वाला होता है। उसके शुभ और अशुभ
पण्डितवीर्यवान के दो प्रकार हैं-बंधी और अबंधी। परिणाम भी मंद होते हैं, जिनके अनुसार शुभ-अशुभ कर्मबंध प्रमाद आदि कर्मबंध के हेतुओं के सद्भाव से बंध होता रहता स्वल्पतर होता है। उसकी ऊर्ध्वगति चौथे देवलोक तक तथा है। यह स्थिति प्रमत्तसंयत से सयोगी केवली तक रहती है। अधोगति दूसरी नरक तक होती है। इसी प्रकार कीलिका अयोगीकेवली नियमतः अबंधी होता है। अतः सभी जीव आदि संहनन वालों की ऊर्ध्व-अधोगति होती है। इस देहवीर्य बंधक नहीं होते। जो बंधक हैं, उनमें भी कषाय के अल्पबहत्व को प्राप्त कर सभी संहनन के प्राणी परस्पर षट्स्थानपतित के कारण कर्मबंध समान नहीं होता।
होते हैं। जैसे सेवार्त संहनन वाले प्राणियों में जो सर्वजघन्य ईर्यापथिक (योगजन्य) बंध सबके समान होता है। बल वाले हैं, उनकी अपेक्षा से अन्य सेवात संहननी १०. संहनन-धृति और कर्म
अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, णामुदया संघयणं, धिती तु मोहस्स उवसमे होति। संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि वाले
होते हैं। अतः देहबल की विचित्रता से परिणाम की विचित्रता तहवि सती संघयणे, जा होति धिती ण साहीणे॥
होती है और इससे कर्मबंध भी विचित्र होता है।
(निभा ८५) ० संहनन-यह नामकर्म की प्रकृति (नामकर्म के बयालीस
१२. ज्ञान-अज्ञान और कर्मबंध भेदों में आठवां भेद) है। शुभनाम कर्म के उदय से दृढ़
जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य। संहनन होता है।
तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए॥ ० धृति-यह मोहकर्म (अरति नोकषाय चारित्र मोहनीय)
(बृभा ३९३८) के क्षयोपशम से प्राप्त होती है।
दो अविरत व्यक्ति हैं। एक जानता हुआ हिंसा करता यद्यपि संहनन और धति की उत्पत्ति भिन्न है. फिर है और दूसरा अज्ञान अवस्था में हिंसा करता है। दोनों के भी दृढ़ संहननी में जैसी धृति होती है, वैसी धृति हीन कर्मबंध में महान् अन्तर है, ऐसा सिद्धान्त में प्ररूपित है। जो संहनन वाले में नहीं होती।
जानता हुआ हिंसा करता है, वह तीव्र अनुभाव वाले अत्यधिक
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