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कर्म
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आगम विषय कोश-२
क्षय धृति, संहनन और शारीरिक बल से युक्त कभी किसी जैसे धूम-रहित अग्नि ईंधन के अभाव में बझ जाती व्यक्ति के होता है, सदा नहीं होता, सबके नहीं होता। जो है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म प्राणी संहनन और बल से हीन होता है, वह अनुदीर्ण कर्म का क्षीण हो जाते हैं। देशतः क्षय करता है, सर्वतः क्षय नहीं करता। आयुष्य कर्म मूल के सूख जाने पर जैसे वृक्ष जल से अभिषिक्त का क्षय उदीर्ण अवस्था में ही होता है। शेष कर्मों का उदीर्ण होकर भी अंकुरित नहीं होता, वैसे ही मोहकर्म के क्षीण हो और अनुदीर्ण-दोनों अवस्थाओं में क्षय हो सकता है। जीव जाने पर शेष कर्म उत्पन्न नहीं होते। और कर्म-दोनों की यथायोग तुल्य बलवत्ता है
१७. पुण्यबंध से मुक्ति कैसे? धान्यपल्य दृष्टांत दृग्नाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे। सक्का अपसत्थाणं, तु हेतवो परिहरित्तु पयडीणं। नीचैर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतेर्मल्लिनाथेऽबलात्वम्॥
सादादिपसत्थाणं, कहं णु हेतू परिहरेज्जा। निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि।
जति वा बज्झति सातं, अणुकंपादीसुतो कहं साहू। इत्थं कर्मा-ऽऽत्मवीर्ये स्फुटमिह जयतां स्पर्द्धया तुल्यरूपे॥
परमणुकंपाजुत्तो, वच्चति मोक्खं सुहणुबंधी॥ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का अंधा होना, भरतचक्रवर्ती का सुहमवि आवेदंतो, अवस्समसुभं पुणो समादियति। विजयी होना अथवा बाहुबली द्वारा भरत चक्रवर्ती का दृष्टि, एवं तुणस्थि मोक्खो, कहं च जयणा भवति एत्थं ॥ मुष्टि आदि पांच प्रकार के युद्धों में हारना, कृष्ण का सर्वनाश भण्णतिजहा तुकोती, महल्लपल्ले तुसोधयति पत्थं। होना, चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का नीचगोत्र में जन्म पक्खिवति कुंभं तस्स उ, णत्थि खतो होति एवं तु॥ ग्रहण करना, तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्रीरूप में जन्म लेना, अन्नो पुण पल्लातो, कुंभंसोहयति पक्खिवेति पत्थं। नारद का निर्वाण होना, चिलातिपुत्र का उपशमभाव में परिणत तस्स खओ भवतेवं, इय जे तु संजया जीवा॥ हो जाना-ये सारी घटनाएं आत्मवीर्य तथा कर्मशक्ति की तेसिं अप्पा णिजर, बहुबज्झइ पाव तेणणस्थि खओ। यथायोग तुल्यता की ओर संकेत करती हैं।
अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर तेण मोक्खो तु॥ १६. मोहक्षय : ताल, सेनापति आदि दृष्टांत
(निभा ३३२८-३३३०, ३३३३-३३३५) जहा मत्थए सईए, हताए हम्मती तले। शिष्य ने पूछा-अशुभ अध्यवसाय-निरोध से अप्रशस्त एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ कर्मप्रकृतियों के अशुभ बंध का परिहार किया जा सकता है, सेणावतिम्मि णिहते, जधा सेणा पणस्सती। किन्तु नित्य शुभ अध्यवसायों से सात वेदनीय आदि शुभ एवं कम्मा पणस्संति, मोहणिज्जे खयं गते॥ प्रकृतियों के बंध का वर्जन कैसे संभव है? । धूमहीणे जधा अग्गी, खीयती से निरिंधणे। यदि साधु प्राणदया, व्रतसम्पन्नता, संयमयोगों में उद्यम, एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ शांतिसम्पन्नता, दानरुचि, गुरुभक्ति आदि से सातवेदनीयकर्म सक्कमले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। का बंध करता है तो वह स्वपरानुकंपी पुण्यबंधी साधु मोक्ष एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते॥ को कैसे प्राप्त कर सकता है, क्योंकि पुण्य मोक्षगमन का
(दशा ५/७/११-१४) विघ्न है। जैसे तालवृक्ष के शीर्ष स्थान में सूई से छेद किए जाने जीव शुभ का संवेदन करता हुआ भी अवश्य अशुभ का पर वह नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो बंध करता है। पुण्य-पाप के उदय से संसार बढ़ता है, मोक्ष जाने पर शेष सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं।
नहीं होता, तब साधु को कैसा प्रयत्न करना चाहिये? जैसे सेनापति के मर जाने पर सारी सेना विनष्ट हो । आचार्य ने धान्यपल्य दृष्टान्त देते हुए कहा-जैसे जाती है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष कोई व्यक्ति एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में से एक प्रस्थ सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं।
धान्य निकालता है और उसमें एक कुंभ धान्य डालता है,
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