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कषाय
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आगम विषय कोश-२
एक बार दूतकार्य में नियुक्त उसका भाई वहां आया। जं अज्जियं चरितं, उसने बहिन को पहचान लिया और उस वैद्य से मुक्त तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण॥ कराकर उसे अपने घर ले आया। वमन-विरेचन द्वारा पुनः
(बृभा २७१३-२७१५) स्वस्थ कर अमात्य को सौंप दिया। अमात्य ने पुनः उसे
क्रोध अथवा कलह करते हुए शिष्य को गुरु कहते गृहस्वामिनी बना दिया।
हैं-शांत हो जाओ, शांत हो जाओ। (अनुपशांत के संयम भट्टा का मेरुसदृश अभिमान समाप्त हो गया। उसने
कहां?, स्वाध्याय कहां?) स्वाध्याय करो। द्रमक की तरह संकल्प किया-अब मैं क्रोध और मान नहीं करूंगी।
शाकवृक्ष के पत्रों से कनकरस का परित्याग क्यों कर रहे हो? भट्टा के घर में लक्षपाक तैल था। एक मुनि ने व्रण--
____एक परिव्राजक ने द्रमक को देखा और पूछा-तुम संरोहण हेतु तैल की याचना की। भट्टा ने दासी से तैल घट
चिंतित क्यों हो? द्रमक ने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत लाने को कहा। दासी तैल का घड़ा ला रही थी, घड़ा उसके
हूं। परिव्राजक ने कहा-जैसा मैं कहूं, वैसा करोगे तो धनवान् हाथ से गिरा और फूट गया। दूसरा और तीसरा घट भी फूट
बन जाओगे-यह कहते हुए वह उसे एक पर्वतनिकुंज में ले गया। लक्षपाक तैल के तीन घट नष्ट हो जाने पर भी भट्टा को
गया और कहाक्रोध नहीं आया। चौथी बार वह स्वयं उठकर गयी और मुनि को लक्षपाक लाकर दिया।
'यह कनकरस है। इसे प्राप्त करने के लिए तुम ठंडी० माया : पांडुरा आर्या दृष्टांत
गर्म हवाओं को सहन करो, भूख-प्यास को सहन करो, ब्रह्मचर्य पांडुरा पार्श्वस्था-शिथिलाचारिणी साध्वी। समय आने
का पालन करो, अचित्त कंद-मूल-पत्र-पुष्प-फलों का आहार पर गुरु के पास भक्तप्रत्याख्यान का स्वीकरण। मंत्रशक्ति से
करो और फिर पवित्र भावधारा से शमीपत्रपुटक में इसे ग्रहण लोगों की भीड़। गुरु के द्वारा पूछे जाने पर उसने तीन बार
करो'-यह स्वर्णरसप्राप्ति की उपचारविधि है।
के प्रतिक्रमण किया। चौथी बार फिर मंत्रशक्ति का प्रयोग किया।
द्रमक ने उपचारपूर्वक कनकरस को शमीपत्रकपुटक आचार्य के पूछने पर कहा कि पूर्वाभ्यास से लोग आते हैं
से लोग आते हैं में भर लिया। घर लौटते समय परिव्राजक ने कहा-रोष अत: आलोचना-प्रतिक्रमण नहीं किया। मरकर वह सौधर्म उत्पन्न पर भी तुम शाकपत्र से (कषाय के वशीभूत होकर) देवलोक में ऐरावण हाथी की अग्रमहिषी बनी। महावीर के तुम्बिका में एकत्रित इस स्वर्णरस को मत फेंकना। उसने आगे समवसरण में हथिनी के रूप में चिंघाड़ने लगी। गौतम के कहा-'देखो! तुम मेरे प्रभाव से धनी हो जाओगे।' पुनः द्वारा पूछने पर महावीर ने उसका पूर्वभव बताया।
पुनः इन शब्दों को सुना तो द्रमक क्रोध भरे शब्दों में बोला• लोभ : आर्य मंगु दृष्टांत
तुम्हारे प्रसाद से मैं धनी होऊं तो इससे मुझे प्रयोजन नहीं मथुरा में आर्य मंगु बहुश्रुत, वैरागी एवं श्रद्धालुओं द्वारा है-यह कहते हुए उसने स्वर्णरस को फेंक दिया। पूजित आचार्य थे। वे सुखसाता में प्रतिबद्ध होकर श्रावकों की परिव्राजक ने कहा-'जिसको तप-नियम-ब्रह्मचर्य नित्य भिक्षा करने लगे। दिवंगत होने पर प्रतिमा में प्रवेश कर की साधना से अर्जित कर शमीपत्रपुटक में रखा था शाकपत्रों लंबी जीभ निकालकर कहते-मैं लोलुपतावश अधर्मी व्यन्तर से छोड़ते हुए बाद में जान पाओगे कि मैंने चिरसंचित स्वर्णरस देव बना हूं अतः कोई लोलुपता मत करना।
को शाकपत्रों से उत्सिक्त कर परित्याग किया-यह अच्छा ४. कषाय से चारित्रनाश: कनकरर
नहीं किया।' (इसी प्रकार शिष्य! तम चारित्र रूपी स्वर्णरस
गुरुवयणं। को कषायरूपी शाकपत्र से समाप्त कर पश्चात्ताप करोगे।) उवसमह कुणह ज्झायं, छड्डणया सागपत्तेहिं॥ 'मनुष्य देशोन पूर्वकोटि जितने लम्बे काल तक संयमजं अज्जियं समीखल्लएहिँ तव-नियम-बंभमइएहिं। साधना कर जो चारित्रसम्पदा अर्जित करता है, उसे क्रोध आदि तं दाणि पच्छ नाहिसि, छड्डिंतो सागपत्तेहिं॥ कषायों के उदय मात्र से अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है।'
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