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आगम विषय कोश-२
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कायक्लेश
५. कषाय और गति : कषायक्षय से निर्वाण कामभोग-शब्द आदि इन्द्रियविषयों का आसेवन । ....."उवसम-खएण उर्दू, उदएण भवे अहेगरणं॥
द्र ब्रह्मचर्य तिव्वकसायसमुदया, गुरुकम्मुदया गती भवे हिट्ठा।
कायक्लेश-आसन, आतापना, केशलोच आदि निरवद्य नाइकिलिट्ठ-मिऊहि य, उववज्जइ तिरिय-मणुएसु॥ खीणेहि उ निव्वाणं, उवसंतेहि उ अणुत्तरसुरेसु।
प्रवृत्तियों द्वारा शरीर को साधना। जह निग्गहो तह लहू, समुवचओ तो सेसेसु।। १. आसन के प्रकार (बृभा २६८२-२६८४)
२. साध्वी और आसन (अभिग्रहविशेष) कषाय के उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति (स्वर्ग या
| ३. आतापना के प्रकार
४. लेटकर ली जाने वाली आतापना उत्कृष्ट मोक्ष) की प्राप्ति होती है। कषाय के तीव्र उदय से अधोगति
५. आतापना-विधि (नरक) की प्राप्ति होती है।
६.साध्वी और आतापना कषायोदय अति तीव्र न हो तो तिर्यंचगति और मध्यम
___* केशलोच
द्र पर्युषणाकल्प परिणामधारा से मनुष्यगति प्राप्त होती है। क्रोध आदि तीव्र संक्लिष्ट परिणामों से भारी कर्मों का
१. आसन के प्रकार उपचय होता है। भारी कर्मोदय से नरकगति प्राप्त होती है।
__.'ठाणाययाए पडिमट्ठाइयाएनेसज्जियाए, अतिक्लिष्ट परिणाम न हों तो अतिक्लिष्ट कर्मोपचय नहीं
उक्कुडुगासणियाए, वीरासणियाए, दंडासणियाए, लगंडहोता। परिणामस्वरूप तिर्यंचगति में गमन होता है।
साइयाए, ओमंथियाए, उत्ताणियाए, अंबखुज्जियाए, एकपासियाए।....
(क ५/२१-२३) - मृदु (प्रतनुकषाय) परिणामों से मृदु कर्मोपचय होता है। फलस्वरूप जीव मनुष्यगति में उत्पन्न होता है।
...पंचेव णिसिज्जाओ, तासि विभासा उ कायव्वा॥ जीव कषाय के पूर्ण क्षय से निर्वाण प्राप्त करता है। वीरासणं तु सीहासणे वजह मुक्कजाण्णुक णिविट्ठो। कषाय के उपशांत अथवा क्षीणोपशांत होने पर जीव अनुत्तर दंडे लगंड उवमा, आयत खुज्जाय दुण्हं पि॥ विमान में उत्पन्न होता है।
निषद्या नाम-उपवेशनविशेषाः, ता: पंचविधाः, ___ जीव के कषाय का जितना अधिक निग्रह होता है, तद्यथा-समपादपुता गोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यंकाउतना ही अधिक वह लघुभूत होता है।
ऽर्धपर्यंका चेति। तत्र यस्यां समौ पादौ पुतौ च स्पृशत: सा कषायों के प्रकृष्ट निग्रह के अभाव में कर्मों का समपादपुता, यस्यां तु गौरिवोपवेशनं सा गोनिषद्यिका, यत्र समुपचय होता है, जिससे जीव अनुत्तरविमान वर्जित शेष पुताभ्यामुपविश्यैकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिशुण्डिका," देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।
अर्धपर्यंका यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति वीरासनं नाम यथा चउसु कसाएसुगती, नरय-तिरिय-माणुसे य देवगती। सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने
(दशानि १०४) कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बकषाय गति कषाय गति नेऽपि यद् आस्ते।दुष्करं चैतद् अत एव वीरस्य साहसिक१. क्रोध नरक ३. माया मनुष्य स्यासनं वीरासनमित्युच्यते।"दण्डस्येवायतं-पाद२. मान तिर्यंच ४. लोभ
प्रसारणेन दीर्घ यद्आसनं तद् दण्डासनम्। लगण्डं किलकांदी भावना-संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार। दुःसंस्थितं काष्ठम्, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपार्णिकानां कामकथा आदि से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार भुविलगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः ।(बृभा५९५३,५९५४५) और आचरण।
द्र भावना
आसन के अनेक प्रकार है
४. लोभ
देव
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