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कषाय
और पांच निर्विकृतिक दिए जाते हैं ।
( एक कल्याणक से तात्पर्य है एक उपवास, एक आचाम्ल, एक एकाशन, एक पूर्वार्ध और एक निर्विकृतिक ।) ० कल्याणक द्वारा प्रायश्चित्त का विधान
यस्य यावन्ति इन्द्रियाणि तस्य तावन्ति कल्याणानि प्रायश्चित्तं तद्यथा - एककल्याणकमेकेन्द्रियाणां परितापने, द्वे कल्याणके द्वीन्द्रियाणां पूर्वार्द्धमित्यर्थः । त्रीणि कल्याणकानि त्रीन्द्रियाणामेकाशनकमिति भावः । चतुरिन्द्रियाणामाचाम्लं, पञ्चेन्द्रियाणामभक्तार्थः । (व्यभा ४०१२ की वृ) पञ्चकल्याणं निर्विकृतिकपूर्वार्धएकाशनकायामाम्लक्षपणरूपम् । (व्यभा ४५४० की वृ) जिसके जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसकी परितापनारूप विराधना होने पर उतने ही कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है । यथाएकेन्द्रिय परितापना द्वीन्द्रियपरितापना
त्रीन्द्रिय परितापना चतुरिन्द्रिय परितापनाचार पञ्चेन्द्रिय परितापना
कल्याणक - निर्विकृतिक दो कल्याणक-1 - पूर्वार्ध तीन कल्याणक - एकाशन कल्याणक- आचाम्ल
पांच कल्याणक-उपवास (कल्याणक की व्याख्या में बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति तथा व्यवहारभाष्य वृत्ति का भेद दो परंपराओं की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि कल्याणक के सापेक्ष विकल्पों के प्रसंग में व्यभा ४२०५ की वृत्ति में बृभा ५३६० की वृत्ति की अनुवृत्ति हुई है - द्र प्रायश्चित्त ।
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तकल्प (सूत्र ३२ तथा उसकी चूर्णि) में पञ्चेन्द्रिय संघट्ट, अनागाढ परितापन, आगाढ परितापन और अपद्रावण में क्रमश: एकाशन, आचाम्ल, उपवास तथा एक कल्याणक प्रायश्चित्त का विधान है। इस आधार पर कहा जा सकता है। कि एक कल्याणक में उपवास आदि पांचों होते हैं ।) कषाय — मोहजनित आंतरिक उत्ताप ।
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१. कषाय के प्रकार, उपमा, कालावधि २. मान में क्रोध की नियमा
३. कषाय और दृष्टांत
० क्रोध : मरुक दृष्टांत
० मान: अत्वंकारी भट्टा
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आगम विषय कोश - २
• माया : पांडुरा आर्या
० लोभ : आर्य मंगु * कषाय प्रतिसेवना
४. कषाय से चारित्रनाश: कनकरस दृष्टांत * चारित्र अकषाय
५. कषाय और गति : कषायक्षय से निर्वाण * कषाय शमन का उपाय
* दोषनिर्घातन विनय : कषायविनयन * अनशन से पूर्व कषाय का कृशीकरण राग-द्वेष वृद्धि से प्रायश्चित्त वृद्धि
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द्र प्रतिसेवना
द्र चारित्र
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द्र अधिकरण
द्र आचार्य द्र अनशन द्र प्रायश्चित्त
१. कषाय के प्रकार, उपमा, कालावधि वाओदएहि राई, नासति कालेण सिगय पुढवीणं णासति उदगस्स सतिं पव्वतराई तु जा सेलो ॥ ( निभा ३१८८) उदगसरिच्छा पक्खेण वेति चतुमासिएण सिगयसमा । वरिसेण पुढविराई, आमरणगती उ पडिलोमा ॥ सेलऽट्ठि- थंभ-दारुय, लता य वंसी य मिंढ गोमुत्तं । अवलेहणिया किमिराग-कद्दम-कुसुंभय-हलिद्दा ॥ (दशानि १०२, १०३)
कषाय के चार प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोध कषाय के चार प्रकार हैं- पानी की रेखा के समान, बालू की रेखा के समान, भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान ।
हवा और जल से बालू की रेखा और भूमि की रेखा स्वल्प समय में मिट जाती है। जल की रेखा तत्क्षण मिट जाती है, पर्वत की रेखा पर्वत के अस्तित्व काल तक रहती है।
जो क्रोध पानी के रेखा के समान होता है, वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपशांत हो जाता है । जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है, वह क्रोध बालू की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है, वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवनपर्यंत नष्ट नहीं होता ।
मान के चार प्रकार हैं- पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान, काष्ठ-स्तम्भ के समान तथा लतास्तम्भ के समान ।
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