________________
आगम विषय कोश-२
१६५
कर्म
पापकर्मों का संचय करता है तथा दूसरा मंदविपाक वाले १५. कर्म का कर्ता स्वतंत्र या परतंत्र? अल्पतर पापकर्मों का संचय करता है।
कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। १३. जीव में भाव और कर्मबंध
रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो॥ एगो खओवसमिए, वदृति भावेऽवरो उ ओदइए। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्ता॥
कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ एमेव ओवसमिए, खओवसमिए तहेव खइए य।
धणियसरिसंतुकम्मं, धारणिगसमा उ कम्मिणो होति। बंधाऽबंधविसेसो, ण तुल्लबंधा य जे बंधी।
संताऽसंतधणा जह, धारणग धिई तणू एवं॥ (बृभा ३९४०, ३९४१)
सहणोऽसहणो कालं, जह धणिओ एवमेव कम्मं तु। भाव पांच हैं-उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और
उदियाऽणुदिए खवणा, होज्ज सिया आउवजेसु॥ पारिणामिक। जीव किसी न किसी भाव में प्रवर्तमान रहता है,
(बृभा २६८९-२६९२) जिसके आधार पर उसके कर्मबंध होता है। क्षायोपशमिक भाव
शिष्य ने पूछा-जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का में प्रवर्तमान जीव के मंदतर कर्मों का और औदयिक भाव में उपचय करने में स्वतंत्र हैं तो फिर गति भी उनके वशवर्ती प्रवर्तमान जीव के तीव्रतर कर्मों का उपचय होता है। इसी प्रकार ही होनी चाहिए। कर्मों के द्वारा वे ऊर्ध्व, अधः या तिर्यग् औपशमिक, क्षायिक आदि भावों में प्रवर्तमान जीव के बंध- क्यों ले जाए जाते हैं? अबंध में अंतर होता है। जो कर्मबंधक जीव हैं उनमें भी
आचार्य ने कहा-जीव कर्म का बंधन करने में स्वतंत्र बंध समान नहीं होता किन्तु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और हैं किन्तु उसके भोग में परतंत्र हैं। जैसे एक मनुष्य वृक्ष पर प्रदेश के रूप में भिन्न-भिन्न (विसदृश) बंध होता है। आरोहण करने में स्वतंत्र है। किन्तु किसी प्रमाद से वह स्खलित १४. कर्म का गुरुत्व-लघुत्व और नय
हो जाए तो गिरने में परतंत्र है।
कहीं जीव कर्म के वशवर्ती होता है और कहीं कर्म गुरुलघुकमगुरुलघुकं वा द्रव्यं भवति नैकान्तगुरुकं न वा एकान्तलघुकमित्यागमेऽभिधीयते ततः कर्मणां
___जीव के वशवर्ती होते हैं। कहीं ऋण देने वाला बलवान् होता गुरुतया जीवा अधो गच्छन्ति लघुतया तूर्ध्वमिति कथं न
" है तो कहीं ऋण लेने वाला बलवान् होता है। विरुध्यते ? उच्यते-इह हि यद् आगमे गुरुलघु
धनिक व्यक्ति के सदृश कर्म है तथा धारणिक- कर्ज कमगुरुलघुकं वा द्रव्यमुक्तं तन्निश्चयनयमताश्रयणेन, इदं
लेने वाले के समान जीव है। यदि धारणिक वैभव सम्पन्न है,
तो वह धन देकर ऋणमुक्त हो जाता है। यदि वह धनरहित है तु कर्मणां गुरुत्वं लघुत्वं च व्यवहारनयमताश्रयणाद्
तो उसे धनिक के वशीभूत होकर उसके दासत्व को स्वीकार उच्यते।
(बृभा २६८४ की वृ)
करना पडता है। इसी प्रकार जिस जीव का धतिबल और शिष्य ने पूछा-जीव कर्मों की गुरुता से नीचे तथा शरीरबल मजबूत होता है, वह कर्मों को खपाकर सुखपूर्वक कर्मों की लघुता से ऊपर जाता है-यह कथन आगम के कर्म ऋण से मुक्त हो जाता है। जिसका धुतिबल और शरीरबल विरुद्ध कैसे नहीं है ? क्योंकि आगम के अनुसार कोई भी कमजोर होता है, वह कर्मों के वशीभूत हो जाता है। द्रव्य एकांत गुरु या एकांत लघु नहीं होता । वह या तो गुरुलघु धनिक के दो प्रकार हैं-सहिष्णु तथा असहिष्णु। जो होता है या अगुरुलघु होता है। गुरु ने कहा-आगम में सहिष्णु होता है, वह विवक्षित काल की प्रतीक्षा करता है और निश्चयनय के आधार पर गुरुलघु और अगुरुलघु द्रव्य का जो असहिष्णु होता है, वह प्रतीक्षा नहीं करता। इसी प्रकार कुछ प्रतिपादन हुआ है। यह कर्मों का गुरुत्व और लघुत्व व्यवहार कर्म स्थिति पूर्ण होने पर और कुछ कर्म उससे पूर्व ही अपना नय के आधार पर प्रतिपादित है।
प्रभाव दिखाते हैं। इसी प्रकार उदीर्ण अथवा अनुदीर्ण कर्मों का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org