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आगम विषय कोश-२
१५९
कर्म
बहजणस्स नेतारं, दीवं ताणं च पाणिणं। जलाकर उसके धुएं से मारना। एतारिसं नरं हता, महामोहं पकुव्वति॥ ४. संक्लिष्ट चित्त से किसी प्राणी के सर्वोत्तम अंग (सिर) उवद्रियं पडिविरयं, संजयं सतवस्सियं। पर प्रहार कर, उसे खंड-खंड कर फोड़ देना। वोकम्म धम्माओ भंसे, महामोहं पकुव्वति॥ ५. तीव्र अशुभ समाचरणपूर्वक किसी त्रस प्राणी को गीले तहेवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं। चमड़े की बाध से बांधकर मारना।। तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वति॥ ६. प्रणिधि से (वेश बदल कर) किसी मनुष्य को विजन में णेयाउयस्य मग्गस्स, दुढे अवयरई बहुं। फलक या डंडे से मारकर खुशी मनाना। तं तिप्पयंतो भावेति, महामोहं पकव्वति॥ ७. गोपनीय आचरण कर उसे छिपाना, माया से माया को आयरिय-उवज्झाएहिं, सुयं विणयं च गाहिए। ढांकना, असत्य बोलना, यथार्थ का अपलाप करना। ते चेव खिंसती बाले, महामोहं पकुव्वति॥ ८. अपने दुराचरित कर्म का दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर आरोपण आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं ण पडितप्पति। करना अथवा किसी एक व्यक्ति के दोष का किसी दूसरे अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुव्वति॥ व्यक्ति पर 'तुमने यह कार्य किया था'-ऐसा आरोपण करना। अबहुस्सुते वि जे केइ, सुतेणं पविकत्थइ।। ९. यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र भाषा सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुव्वति॥ बोलना और निरन्तर कलह करते रहना। अतवस्सिते य जे केइ, तवेणं पविकत्थति। १०. शासनतंत्र में भेद डालने की प्रवृत्ति से अपने राजा को सव्वलोगपरे तेणे, महामोहं पकुव्वति॥ संक्षुब्ध और अधिकार से वंचित कर उसकी अर्थ-व्यवस्था साहारणट्ठा जे केइ, गिलाणम्मि उवट्ठिते। (या अन्तःपुर) का ध्वंस कर देना और जब वह अधिकारपभू ण कुव्वती किच्चं, मज्झं पेस ण कुव्वती॥ मुक्त राजा अपेक्षा लिए सामने आए, तब प्रतिलोम वाणी द्वारा सढे नियडिपण्णाणे, कलुसाउलचेतसे....। उसकी भर्त्सना करना, अपने स्वामी के विशिष्ट भोगों को जे कहाधिकरणाइं, संपउंजे पुणो-पुणो। विदीर्ण करना। सव्वतित्थाण भेयाए, महामोहं पकुव्वति॥ ११. अकुमार-ब्रह्मचारी होते हुए भी अपने को कुमार- . जे य आधम्मिए जोए, संपउंजे पुणो-पुणो। ब्रह्मचारी (बाल-ब्रह्मचारी) कहना तथा दूसरी ओर स्त्रियों में सहाहेउं सहीहेडं, महामोहं पकुव्वति॥ आसक्त रहना। जे य माणुस्सए भोगे, अदवा पारलोइए। १२. अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना तेऽतिप्पयंतो आसयति, महामोहं पकुव्वति॥ और स्त्री विषयक आसक्ति के कारण मायायुक्त मिथ्यावचन इड्डी जुती जसो वण्णो, देवाणं बलवीरियं। का बहुत प्रयोग करना। तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वति॥ १३. राजा आदि के आश्रित होकर उसके संबंध से प्राप्त यश अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे। और सेवा का लाभ उठाकर जीविका चलाना और उसी के अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वति॥ धन में लुब्ध होना।
(दशा ९/२/१-३४) १४. ईर्ष्णदोष से आविष्ट तथा पाप से पंकिल चित्त वाला १. किसी त्रस प्राणी को पानी में ले जा, पैर आदि से होकर अनीश्वर को ईश्वर मानकर अपने भाग्य-निर्माताओं के आक्रमण कर पानी के द्वारा उसे मारना।
जीवन या सम्पदा में अन्तराय डालना। २. अपने हाथ से किसी मनुष्य का मुंह बंद कर, उसे कमरे में १५. जैसे नागिन अपने अंड-पुट को खा जाती है, वैसे ही रोक कर, अन्तर्विलाप करते हुए को मारना।
अपना पोषण करने वाले को तथा सेनापति और प्रशास्ता को ३. अनेक जीवों को किसी एक स्थान में अवरुद्ध कर, अग्नि मार डालना।
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