________________
आगम विषय कोश - २
पार्श्वस्थ मुनि चारित्र के लिए उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उनका संग्रह करें और जो केवल ज्ञान - दर्शन के प्रयोजन से उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उन्हें कभी उपसम्पदा न दें।
१४७
उपसम्पदा से पूर्व आचार्य स्वयं की और उपसम्पद्यमान शिष्य की चार प्रकार से परीक्षा करते हैं ।
o आचार्य द्वारा आत्मपरीक्षण
आहाराई दव्वे, उप्पाएडं सयं जइ समत्थो । खेत्तओ विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया ॥ कालम्मि ओममाई, भावे अतरंतमाइपाउग्गं । कोहाइनिग्गहं वा, जं कारण सारणा वा वि ॥ (बृभा १२५४, १२५५) उपसम्पदा से पूर्व आचार्य स्वयं को तोलते हैं१. द्रव्यतः - क्या मैं उपसम्पन्न मुनियों के लिए एषणीय आहार आदि का उत्पादन कर सकता हूं?
२. क्षेत्रत:- क्या मैं वर्षावास तथा मासकल्प के योग्य क्षेत्रों की गवेषणा कर सकता हूं? क्या मैं मार्गगत मुनियों का योगक्षेम वहन कर सकता हूं ?
३. कालतः - क्या मैं दुर्भिक्ष आदि में शिष्यों का निर्वाह कर सकता हूं?
४. भावतः - क्या मैं शैक्ष, वृद्ध और ग्लान मुनियों की आवश्यकताओं को पूरी कर सकता हूं ? क्या मैं क्रोध आदि कषायों का निग्रह करने में सक्षम हूं ? क्या मैं अपने पास उपसम्पन्न मुनियों के ज्ञान आदि के प्रयोजन को सिद्ध कर सकता हूं ?
० परतुलना (शिष्य-परीक्षा) : स्नुषा दृष्टांत
आहाराइ अनियओ, लंभो सो विरसमाइ निज्जूढो । उभामग खुलखेत्ता, अरिउहियाओ अ वसहीओ ॥ ऊणाइरित्त वासो, अकाल भिक्ख पुरिमड्ड ओमाई । भावे कसायनिग्गह, चोयण न य पोरुसी नियया ॥ अत्तणि य परे चेवं, तुलणा उभय थिरकारणे वृत्ता । पडिवज्जंते सव्वं, करिंति सुहाए दिट्टंतं ॥ मरिसिज्जइ अप्पो वा, सगणे दंडो न यावि निच्छुभणं । अम्हे पुण न सहामो, ससुरकुलं चेव सुण्हाए ॥ (बृभा १२५६ - १२५८, १२६१ ) उपसम्पदा से पूर्व आचार्य प्रतीच्छक मुनियों के सामर्थ्य
Jain Education International
उपसम्पदा
का परीक्षण करते हैं
१. द्रव्यतः - वे उन्हें बताते हैं - यहां आहार आदि का लाभ अनियत है। अरस - विरस तथा परिष्ठापन योग्य आहार भी आ सकता है।
२. क्षेत्रतः - भिक्षाचर्या के लिए अन्य गांवों में अथवा ऐसे गांवों में जहां भिक्षाप्रदाता अल्प हों, भिक्षाप्राप्ति भी अल्प हो - वहां जाना पड़ सकता है। रहने के लिए ऋतु के प्रतिकूल स्थान भी प्राप्त होता है।
३. कालतः - कभी-कभी वर्षावासकल्प या मासकल्प स्थानों में अतिरिक्त निवास भी करना पड़ता है। किसी-किसी क्षेत्र में सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी के समय भिक्षा के लिए जाना पड़ता है। कहीं पूर्वार्द्ध बीत जाने पर भी पूरा आहार प्राप्त नहीं होता है।
४. भावतः - कषायनिग्रह करना आवश्यक है। यहां कठोर वचनों से प्रेरित किया जाता है। सूत्र और अर्थ पौरुषी नियत नहीं भी होती।
इतना बताने पर प्रतीच्छक (अन्य गुरु परम्परा के ) मुनि यदि सहर्ष इन सब बातों को स्वीकार करें तो उन्हें उपसम्पदा दें, अन्यथा नहीं ।
स्नुषा दृष्टान्त - उन्हें स्पष्ट रूप से स्नुषा के दृष्टांत से समझाएं - आर्यो ! तुम्हारा गच्छ पितृगृहस्थानीय है और हमारा गण तुम्हारे लिए श्वसुरकुलस्थानीय है । पितृगृह में वधू का प्रमाद सहन कर लिया जाता है, परन्तु श्वसुरगृह में उसे सहन करना कठिन होता है। हम आपका अल्प प्रमाद भी सहन नहीं करेंगे। प्रमाद के प्रसंग में हम लघु या गुरु प्रायश्चित्त भी देंगे।
११. उपसम्पद्यमान द्वारा आचार्य की परीक्षा
तेण वि आगंतुणा गच्छो परिच्छियव्वो आवस्सगमादीहिं पुव्वभणियदारेहिं । गच्छिल्लगाणं जति किंचि आवस्सगदारेहिं सीदंतं पस्सइ तो आयरियातीणं कहेति,
सो कहिए सम्म आउट्टति त्ति तं साधुं चोदेति पच्छित्तं च से देति तो तत्थ उवसंपदा । अह कहिते सो आयरिओ तुसिणीओ अच्छति भणति वा - किं तुज्झ, णो सम्म आउट्टति ? तो अविउट्टे आयरिए अण्णहिं गच्छति अन्यत्रोपसंपन्नतेत्यर्थः । (निभा ६३५१ की चू)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org