________________
आगम विषय कोश - २
श्रावक सागरचन्द्र अष्टमी - चतुर्दशी को शून्यगृह अथवा श्मशान में एकरात्रिकी प्रतिमा की आराधना करता था । धनदेव को इस बात का पता चला तो उसने प्रतिशोध की भावना से ताम्रिक ( कसेरा) से ताम्रमयी तीक्ष्ण सूइयां बनवाईं, फिर उन सूइयों को शून्यगृह में प्रतिमास्थित सागरचन्द्र के बीसों अंगुलिनखों में डाल दिया। वह वेदना को समभाव से सहन करता हुआ, वेदना की तीव्रता से कालधर्म को प्राप्त कर देव
बना।
ऋजुजड़
-
- ऋजुता से सम्पन्न किन्तु प्रज्ञा से विपन्न पुरुष । प्रथम अर्हत् ऋषभ के शिष्य ऋजु परन्तु प्रज्ञा में मंद थे। द्र ऋजुप्राज्ञ
थे
१५५
ऋजुप्राज्ञ
-ऋजुता और प्राज्ञता से सम्पन्न व्यक्ति । प्रथम और अंतिम तीर्थंकर को छोड़ मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्राज्ञ होते हैं। उज्जत से आलोयणाऍ जडत्तणं सें जं भुज्जो । तज्जाति ण याणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा ॥ उज्जत से आलोयणाऍ पण्णा उ सेसवज्जणया । सण्णायगा वि दोसे, ण करेंतऽण्णे ण यऽण्णेसिं ॥
का उण साहंती, पुट्ठा उ भांति उण्ह - कंटादी । पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं ॥ (बृभा ५३५६-५३५८)
प्रथम तीर्थंकर के ऋजुजड़ साधु अपने अतिचार की आलोचना करते हैं, यह उनका ऋजुभाव है। किन्तु तज्जातीय दोषों का वर्जन नहीं कर सकते, यह उनकी मति की जड़ता है । यही बात तत्कालीन गृहस्थों की है। जिस सदोष कार्य का निषेध किया जाता है, उसी का वर्जन करते हैं, उससे संबंधित अन्य कार्य का नहीं। पूछने पर वे स्पष्ट बता देते हैं - यह उनकी ऋजुता है।
मध्यम तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे जिस दोष का सेवन करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं - यह उनका ऋजुभाव है। उसके साथ तज्जातीय सब दोषों का वर्जन करते हैं - यह उनकी प्राज्ञता है। तत्कालीन गृहस्थ भी एक दोष के आधार पर तज्जातीय शेष सब दोषों की अकल्पनीयता जान लेते हैं।
Jain Education International
ऋजुप्राज्ञ
अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं। वे दोष का सेवन करके न उसे कहते हैं, न उसकी आलोचना करते हैंयह उनकी वक्रता है। जानते हुए या नहीं जानते हुए दोष सेवन में प्रवृत्त होते हैं - यह उनकी जड़ता है।
तुमने नाटक देखा है ? यह पूछने पर वक्रजड़ शिष्य कहता है- नहीं देखा । तुम वहां खड़े क्यों थे? मैं गर्मी से आहत हो गया, इसलिए खड़ा था । अथवा पैर में कांटा लग गया इसलिए वहां खड़ा था।
गृहस्थ भी एषणा आदि के विषय में सद्भाव नहीं कहते । वे कहते हैं - यह वस्तु अतिथियों के लिए बनाई है अथवा ऐसा भोजन मेरे लिए रुचिकर है अथवा आज हमारे उत्सव है - इत्यादि बातें कहकर व्यामोह उत्पन्न करते हैं ।
• ऋजुजड़ शिष्य : नाट्यप्रेक्षण दृष्टांत
नडपेच्छं दट्ठूणं, अवस्स आलोयणा ण सा कप्पे । कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे ॥ एमेव उग्गमादी, एक्केक्क निवारि एतरे गिरहे । सव्वे विण कप्पंति, त्ति वारितो जज्जियं वज्जे ॥ सायगाव उत्तणेण कस्स कत तुज्झमेयं ति । मम उद्दिट्ठ ण कप्पड़, कीतं अण्णस्स वा पगरे । सव्वजण निसिद्धा, मा अणुमण्ण त्ति उग्गमा णे सिं । इति कथिते पुरिमाणं, सव्वे सव्वेसि ण करेंति ॥ (बृभा ५३५२-५३५५)
ऋजुजड़ शिष्यों ने नाटक देखा। आकर ऋजुता से गुरु को निवेदन किया। गुरु ने कहा- यह अकल्पनीय है । घूमते हुए पुन: एक बार बहुरूपिये का कौतुक देखा। गुरु ने कहा- - कौतुक क्यों देखा ? आपने नाटक का निषेध किया था, इसका नहीं। वे ऋजुभाव के कारण जितना निषेध किया जाता है, उतना ही वर्जन करते हैं । सर्वनाट्य का निषेध करने पर समग्रता से वर्जन करते हैं ।
इसी प्रकार उद्गम आदि दोषों में से एक-एक का निषेध करने पर केवल उसी एक का वर्जन कर शेष का वर्जन नहीं करते। सारे दोषों का निषेध करने पर जीवनपर्यंत सब दोषों का वर्जन करते हैं ।
ज्ञातिजनों को पूछने पर कि यह आहार आदि किसके लिए बनाया है तो वे ऋजुभाव से कहते हैं- यह आपके लिए
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org