________________
उपासक प्रतिमा
१५४
आगम विषय कोश-२
पैरों को संकुचित कर चलता है अथवा तिरछे पैर रखकर होकर प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रायः वे लोग इनका चलता है। (यदि मार्ग में त्रस जीव अधिक हों और) दूसरा स्वीकरण करते हैंमार्ग विद्यमान हो तो उस मार्ग पर यतनापूर्वक चलता है, १. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते, किन्तु सीधे मार्ग से नहीं जाता। केवल ज्ञाति-वर्ग से उसके प्रेम- जीवन के अन्तिमकाल में श्रमण जैसा जीवन बिताने के बंधन का विच्छेद नहीं होता, अतः वह ज्ञातिजनों के घर इच्छुक होते हैं। भिक्षा के लिए जा सकता है।
२. जो श्रमण जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। स्वजन-संबंधी के घर पहुंचने से पूर्व चावल पके हों आनन्द श्रावक ने चौदह वर्षों तक बारहव्रती का और भिलिंगसूप (मूंग आदि की दाल) न पका हो तो वह जीवन बिताया। पन्द्रहवें वर्ष के अंतराल में भगवान् महावीर चावल-ओदन ले सकता है किन्तु भिलिंगसूप नहीं ले सकता। के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं।
वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर में प्रवेश कर इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे। तत्पश्चात् 'प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो'-ऐसा कहता ।
उसने अपश्चिम मारणांतिक-संलेखना की और अन्त में एक है। उसे इस विहारचर्या से विहरण करते हुए देखकर कोई मास का अनशन किया। पूछे-तुम कौन हो? वह कहे मैं प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बारहव्रती श्रावक हूं। कालमान ग्यारह मास।
जब सम्यक्-दर्शनी और व्रती होता ही है, तब फिर पहली और ० प्रतिमा का जघन्य काल एक दिन क्यों?
दूसरी प्रतिमा में सम्यक्-दर्शनी बनने की बात क्यों कही गई दिवसो, कहं एगाहं ? सयं पडिवन्ने कालगतो य संजमं
है? इसका समाधान यही है कि बारह व्रत सअपवाद होते हैं, वा गेण्हेज्जा, एतेणेगाहं वा दुआई वा, इतरधा संपुण्णा
जबकि प्रतिमाओं में कोई अपवाद नहीं होता। प्रतिमा में दर्शन पंचमासा अणुपालेतव्वा।
और व्रत-गत गणों का निरपवाद परिपालन और उत्तरोत्तर (दशा ६/१२ की चू)
विकास किया जाता है।-सम ११/१ का टि) पांचवीं यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का जघन्य कालमान
५. पौषध के प्रकार एक दिन क्यों? वह प्रतिमा स्वीकार करते ही कालगत हो
पोसहो चउव्विहो-आहारपोषधो, सरीरसकता है अथवा श्रमण बन सकता है-इस दृष्टि से एक
सक्कारपोसहो, अव्वावारपोसहो, बंभचेरपोसहो। दिन, दो दिन आदि का निर्देश है। अन्यथा पांचवीं प्रतिमा सम्पूर्ण पांच मास यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पूर्ण ग्यारह मास
__ (दशा ६/८ की चू) नियमतः पालनीय है।
पौषधोपवासव्रत के चार प्रकार हैं(दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार इन प्रतिमाओं का आधार १. आहार-पौषध-आहार-परित्याग। सम्यग-दर्शन और श्रावक के प्रथम ग्यारह व्रत हैं। दसरी २. शरीर-संस्कारवर्जन रूप पौषध। प्रतिमा का आधार पांच अणुव्रत और तीन गणव्रत, तीसरी ३. प्रवृत्तिवर्जन रूप पौषध। प्रतिमा का आधार सामायिक और देशावकाशिक (प्रथम दो ४. ब्रह्मचर्य-पौषध-ब्रह्मचर्य का स्वीकार। शिक्षाव्रत) तथा चौथी प्रतिमा का आधार प्रतिपूर्ण पौषधोपवास ६. सागरचन्द्र द्वारा एकरात्रिकी प्रतिमा है। शेष प्रतिमाओं में इन्हीं व्रतों का उत्तरोत्तर विकास किया सागरचंदो अट्ठमि-चउद्दसीसुंसुन्नघरे वा सुसाणे वा गया है।
एगराइयं पडिमंठाइ।धणदेवेणं एयं नाऊणं तंबियाओ सूईओ श्रावक बारहव्रती के रूप में कई वर्षों तक साधना कर घडावियाओ। तओ सुन्नघरे पडिमं ठियस्स वीससु वि चुकता है और जब उसके मन में साधना की तीव्र भावना अंगुलीनहेसु अक्कोडियाओ। तओ सम्ममहियासमाणो उत्पन्न होती है, तब वह गृहस्थ की प्रवृत्तियों से निवृत्त वेयणाभिभूओ कालगतो देवो जाओ। (बृभा १७२ की वृ)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org