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उपासक प्रतिमा
श्रावकास्तु
पुव्वी जदा तदा णो उवासगा भवंति अकृत्स्नश्रुतत्वात् नित्योपासनाच्च उवासगा एव भवंति । (दशानि ३८-४० चू)
द्वादशांग प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन हैअनगारधर्म और अगारधर्म ( श्रावक धर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं । केवली धर्म सुनाते हैं इसलिए वे श्रावक हैं। साधु और गृहस्थ अर्हत् की उपासना करते हैं, इसलिए उपासक हैं। उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी श्रावक हैं। इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों श्रावक हैं। विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और श्रावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं।
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यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है। मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं - वे केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अथवा चौदहपूर्वी सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता होने पर उपासना या श्रवण नहीं करते। इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ असम्पूर्ण श्रुत के कारण नित्य श्रवण और नित्य उपासना करते हैं अतः वे ही श्रावक और उपासक हैं।
३. उपासक प्रतिमा के प्रकार
दंसण-वय- सामाइय-पोसहपडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ-पेस- उद्दिट्ठवज्जए समणभूए य ॥ (दशानि ४४) उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, एकरात्रिकी प्रतिमा, अब्रह्मवर्जन, सचित्तवर्जन, आरंभवर्जन, प्रेष्यारंभवर्जन, उद्दिष्टवर्जन और श्रमणभूत ।
४. उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप
...... एक्कारस उवासगपडिमा पण्णत्ताओ।..... ......सव्वधम्मरुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं नो सम्मं पट्ठविताइं भवंति । एवं दंसणसावगोत्ति पढमा उवासगपडिमा ॥
अहावरा दोच्चा उवासगपडिमा - सव्वधम्मरुई यावि
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आगम विषय कोश - २
भवति । तस्स णं बहूई सील व्वय-गुण- वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्मं पट्ठविताइं भवंति । .... अहावरा तच्चा उवासगपडिमा - ....से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवति ।''
अहावरा चउत्था उवासगपडिमा से णं चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोववासं सम्मं अणुपालित्ता भवति । '''''
अहावरा पंचमा उवासगपडिमा - से णं एगराइयं उवासगपडिमं सम्मं अणुपालेत्ता भवति । से णं असिणाणए वियडभोई मउलिकडे दिया बंभचारी रत्तिं परिमाणकडे । सेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं पंचमासे विहरेज्जा ।"
अहावरा छट्टा उवासगपडिमा – .....रातोवरातं बंभचारी । सचित्ताहारे से अपरिण्णाते भवति । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे छम्मासे विहरेज्जा !..... अहावरा सत्तमा उवासगपडिमा – सचित्ताहारे से परिण्णाते भवति...सत्तमासे विहरेज्जा ।''
अहावरा अट्टमा उवासगपडिमा - ...... परिण्णाते भवति.....अट्ठमासे विहरेज्जा ।....
अहावरा नवमा उवासगपडिमा - .... पेस्सारंभे से परिण्णाते भवति नवमासे विहरेज्जा ।"
अहावरा दसमा उवासगपडिमा उद्दिट्टभत्ते से परिण्णाते भवति । से णं खुरमुंडए वा छिधलिधारए वा । तस्स णं आभट्ठस्स समाभट्ठस्स कप्पंति दुवे भासाओ भासित्तए, तं जहा - जाणं वा जाणं, अजाणं वा नोजाणं । .....दसमासे विहरेज्जा ।...
आरंभे से
अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा - से णं खुरमुंडए वा लुत्तसिरए वा गहितायारभंडगनेवत्थे जे इमे समणाणं निग्गंथाणं धम्मो तं सम्मं कारण फासेमाणे पालेमाणे पुरतो जुगमायाए पेहमाणे दट्ठूण तसे पाणे उद्धट्टु पारीएज्जा, साहट्टु पायं रीएज्जा, वितिरिच्छं वा पाय कट्टु एज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, नो उज्जयं गच्छेज्जा, केवलं से णातए पेज्जबंधणे अव्वोच्छिन्ने भवति । एवं से कप्पति नायवीथिं एत्तए । तत्थ से पुव्वा
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