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आगम विषय कोश-२
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उपासक प्रतिमा
हो।
राइणिएय। तत्थ सेहतराए पलिच्छन्ने, राइणिए अपलिच्छन्ने। सूत्रार्थ ग्रहण के पश्चात् भी संघाटक देता है, जिससे कि सेहतराएणं राइणिए उवसंपज्जियव्वे भिक्खोववायं च भिक्षाटन, प्रतिलेखना आदि व्याक्षेपों के कारण श्रुत नष्ट न दलयइ कप्पागं॥ दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा-सेहे य
उपाध्याय-सूत्रार्थ के ज्ञाता, सूत्र-वाचना द्वारा शिष्यों
न राइणिए य ।तत्थ राइणिए पलिच्छन्ने, सेहतराए अपलिच्छन्ने।
के निष्पादन में कुशल।
द्र संघ इच्छा राइणिए सेहतरागं उवसंपज्जइ इच्छा नो उवसपज्जइ, उपाध्याय का न्यनतम दीक्षापर्याय आदि द्र आचार्य इच्छा भिक्खोववायं दलयइ कप्पागं इच्छा नो दलयइ कप्पागं॥
(व्य ४/२४, २५) उपासक प्रतिमा-श्रमणोपासक की साधना का एक
विशिष्ट प्रयोग। आलोइयम्मि सेहेण, तस्स विगडे उ पच्छराइणिओ।" एगस्स उ परिवारो, बितीए रायणियत्तवादो य। | १. उपासक कौन? इति गव्वो न कायव्वो, दायव्वो चेव संघाडो।। २. साधु भी उपासक या श्रावक कैसे? पेहाभिक्खकितीओ, करेंति सो यावि ते पवाएति।" ३. उपासक प्रतिमा के प्रकार सुत्तत्थं जदि गिण्हति, तो से देति पलिच्छदं। | ४. उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप गहिते वि देति संघाडे मा से नासेज्ज तं सुतं ॥ ० प्रतिमा का जघन्य काल एक दिन क्यों?
(व्यभा २१८१-२१८३, २१८७) ५. पौषध के प्रकार . दो साधर्मिक एक साथ विहरण करते हैं-शैक्षतर- ६. सागरचन्द्र द्वारा एकरात्रिकी प्रतिमा अपेक्षाकृत अल्प दीक्षापर्याय वाला और रत्नाधिक। उनमें
* भोगों का निदान : श्रावकत्व दुर्लभ यदि शैक्ष परिच्छन्न (शिष्यपरिवार और श्रुतसम्पदा से
* श्रावक होने का निदान : श्रमणधर्म दुर्लभ द्रनिदान सम्पन्न) है और रात्निक अपरिच्छन्न (श्रुतसम्पन्न होने पर
१. उपासक कौन? भी शिष्य संपदा से विहीन) है, तो शैक्ष को चाहिए कि
भावे उ सम्मदिट्ठी, सम्ममणो जं उवासए समणे। वह रत्नााधिक को उपसम्पद् दे।
तेण सो गोण्णं नाम उवासगो सावगो व त्ति ॥ प्रथमतः शैक्षतर रात्निक के समक्ष आलोचना करे,
(दशानि ३७) फिर रात्निक शैक्षतर के समक्ष आलोचना करे।
जो सम्यग्दृष्टि है, सम मन वाला है तथा श्रमणों की एक अपने परिवार का तथा दूसरा अपने रात्निकत्व का
उपासना करता है, वह भाव उपासक है। उसके दो गौण गर्व न करे। शैक्ष रात्निक को संघाटक अवश्य दे।
(गणनिष्पन्न) नाम हैं-उपासक और श्रावक। शैक्षतर के शिष्य रात्निक के वस्त्रों आदि की प्रतिलेखना करें, भिक्षा लाकर दें, कृतिकर्म आदि से विनय करें। रात्निक २. साधु भी उपासक या श्रावक कैसे? वाचना देते हैं (सूत्र पढ़ाते हैं, अर्थ सुनाते हैं)। उससे परिश्रान्त कामं दुवालसंगं पवयणमणगारऽगारधम्मो य। होने पर उन्हें दबायें (पगचंपी आदि करें)।
ते के वलीहिं पसूया........... । रानिक परिच्छन्न और शैक्ष अपरिच्छन्न हो तो रालिक तो ते सावग तम्हा, उवासगा तेसु होंति भत्तिगया। की इच्छा पर निर्भर है कि वह उसे उपसम्पद, भिक्षा, उपपात अविसेसम्मि विसेसो, समणेसु पहाणया भणिया।। और योग्यसंघाटक दे, इच्छा न हो तो न दे।
कामं तु निरवसेसं, सव्वं जो कुणति तेण होइ कयं। यदि शैक्ष तुल्य अथवा अधिक श्रुत वाला है, रात्निक तम्मि ठिताओ समणा, नोवासगा सावगा गिहिणो॥ उससे सत्र-अर्थ ग्रहण करता है तो उसे शिष्यपरिवार देता है। साधवस्तु केवलज्ञानोत्पत्तेः कृत्स्नश्रुतत्वाच्च चोद्दस
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