________________
उपसम्पदा
१४६
आगम विषय कोश-२
९. उपसम्पन्न की परीक्षा के आठ बिन्दु
सुखपूर्वक रहूंगा। ऐसा शिष्य प्रतीच्छनीय नहीं है। आवस्सग-पडिलेहण, सज्झाए भुंजणे य भासाए। जो शिष्य प्रशिक्षण लेते हुए शेष साधुओं को देखकर वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति॥ स्वत: उस प्रमादस्थान से निवृत्त हो जाता है और गुरुचरणों में हीणाधियविवरीते, सति वि बले पुव्वऽठंति चोदेति। पहुंच कर गदगद् स्वर से सविनय निवेदन करता हैअप्पणए चोदेती, न ममंति सुहं इहं वसितुं॥ भंते! मैं आपकी शरण में आ गया हूं, फिर भी आपके जो पुण चोइज्जंते, दट्ठण नियत्तए ततो ठाणा। प्रेरणा-प्रशिक्षण के अनुग्रह से वंचित हूं, आप द्वारा परित्यक्त हो भणति अहं भे चत्तो, चोदेह ममं पि सीदंतं॥ गया हूं। आप जैसे परम करुणचेता के लिए यह उचित नहीं है। पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणमधियविवरीतं। अत: मुझ पर अनुग्रह करें और प्रमाद करने पर मुझे भी प्रेरणादोसेहिं वावि भ॑जति, गारस्थियढड्ढरा भासा॥ प्रशिक्षण दें।' ऐसा शिष्य प्रतीच्छनीय है। थंडिल्लसमायारिं, हावति अतरंतगं न पडिजग्गे। इसी प्रकार आचार्य हीन-अधिक, विपरीत आदि दोषों अभणितो भिक्खन हिंडति, अणेसणादी व पिल्लेई॥ से यक्त स्वाध्याय और प्रतिलेखना करते हए आत्मीय शिष्य
(व्यभा २६६.२६८-२७१) को शिक्षा देते हैं. परीक्ष्यमाण को नहीं। आचार्य शिष्य का आठ दृष्टियों से परीक्षण करते हैं
कोई शिष्य सुरसुर, चवचव शब्द करता हुआ खाता १. आवश्यक ५. भाषा
है, गृहस्थ की भाषा में बोलता है, उच्च स्वर. से बोलता है, २. प्रतिलेखन ६. विचारभूमि
विचारभूमि संबंधी सामाचारी का लोप करता है, असमर्थ ३. स्वाध्याय ७. ग्लान
ग्लान साध की सेवा नहीं करता है. बिना कहे भिक्षा के ४. भोजन ८. भिक्षाग्रहण
लिए नहीं जाता है या कहने पर भी थोड़ा-सा घूमकर आ आवश्यक में कायोत्सर्ग संबंधी प्रमाद के कुछ स्थान ___ जाता है, अनेषणीय आहार ग्रहण करता है-इस प्रकार के हैं। यथा-० हीन-कायोत्सर्ग सूत्रों का मंद-मंद उच्चारण प्रमादरत आत्मीय साधु को आचार्य प्रेरित करते हैं, परीक्ष्यमाण कर शेष साधुओं के कायोत्सर्ग में स्थित होने के पश्चात्
साधु को नहीं। कायोत्सर्ग करता है।
१०. मार्गवर्ती उपसंपदा : इत्वर दिग्बंध ० अधिक-कायोत्सर्ग सूत्रों का अति शीघ्रता से उच्चारण कर
आयपरोभयतुलणा, चउव्विहा सुत्तसारणित्तरिया। अनुप्रेक्षा करने के लिए सबसे पहले कायोत्सर्ग करता है,
तिहऽट्ठा संविग्गे, इयरे चरणेहरा नेच्छे॥ रत्नाधिक के कायोत्सर्ग पूर्ण करने के बहुत देर पश्चात् अपना
तेषामुपसम्पन्नानां चासौ सूत्रसारणां करोति, सूत्रं कायोत्सर्ग पूर्ण करता है।
पाठयतीत्यर्थः।"इत्वरां दिशं बध्नाति, यथा-यावदा० विपरीत-प्रादोषिक और प्राभातिक कायोत्सर्ग में व्यत्यय
चार्याणां सकाशं व्रजामस्तावदहमेवाचार्योऽहमेवोकरता है।
पाध्यायः, तत्रगतानामाचायो ज्ञायकाः। (बृभा १२५३ वृ) ० शक्तिगोपन-आचार्य के साथ प्रतिक्रमण करना चाहिए। किन्तु किसी कारणवश आचार्य के विलम्ब हो तो सूत्रार्थस्मरण
देश-दर्शन के समय मुनि जिनको उपसंपदा देते हैं, के लिए पहले कायोत्सर्ग नहीं करता है।
प्रव्रजित करते हैं, उन्हें वे सूत्रआगम पढाते हैं और इत्वर इस प्रकार आवश्यक में प्रमाद करने पर आचार्य शिष्य । दिशाबंध करते हैं, यथा-जब तक हम आचार्य के पास न को सावधान करते हैं, प्रेरणा देते हैं किन्तु जिसकी परीक्षा की जाएं, तब तक मैं ही आचार्य हूं और मैं ही उपाध्याय हूं। जा रही है, उसे प्रमाद करने पर भी शिक्षा नहीं देते हैं। प्रेरणा के वहां जाने के पश्चात् आचार्य ही प्रमाण हैं। अभाव में परीक्षणीय शिष्य यदि ऐसा सोचता है कि ये आचार्य जो संविग्न मुनि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए आत्मीय शिष्यों को प्रेरित करते हैं, मुझे नहीं, अतः मैं यहां उपसम्पन्न होना चाहते हैं, उन्हें अवश्य उपसंपदा दें। जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org