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उपसम्पदा
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आगम विषय कोश-२
__ आगंतुक शिष्य किसी गच्छवासी साधु को आवश्यक आदि क्रियाओं में प्रमत्त देखता है तो आचार्य के पास जाकर उस प्रमाद का निवेदन करता है। निवेदन सनकर आचार्य उस प्रमादी साध को सावधान करते हैं. उचित प्रायश्चित्त देते हैं. तो वह वहां उपसम्पदा ग्रहण करता है।
इसके विपरीत प्रमाद के ज्ञात होने पर भी आचार्य मौन रहते हैं अथवा यह कहते हैं-प्रवृत्ति करता है या नहीं करता है-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन? आचार्य के द्वारा ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार किए जाने पर वह अन्यत्र गच्छान्तर में उपसम्पदा ग्रहण करता है। १२. आलोचना-श्रवण व सामाचारी बोध
पासस्थाईमुंडिएँ, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ। संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव ओसन्नो॥ समणुनमसमणुन्ने, जप्पभिई चेव निग्गओ गच्छा। सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारिं पयंसंति॥ अवि गीय-सुयहराणं, चोइज्जंताण मा हु अचियत्तं। मेरासु य पत्तेयं, माऽसंखड पुव्वकरणेणं॥
(बृभा १२६२-१२६४) उपसम्पदा स्वीकार करने वाले शिष्य दो प्रकार के हो सकते हैं-पार्श्वस्थ और संविग्न। पार्श्वस्थ द्वारा मुण्डित पार्श्वस्थ जब दीक्षित हुआ था, उस दिन से लेकर आज तक की आलोचना करता है। संविग्न से मुण्डित संविग्न यदि अवसन्न (सामाचारी में शिथिल) हो गया है तो वह जब से अवसन्न हुआ, तब से आलोचना प्रारंभ करता है।
सांभोजिक और असांभोजिक संविग्न जब से अपने गच्छ से निकले हैं. उस दिन से लेकर आज तक की उन्हें आलोचना करनी होती है।
आचार्य आलोचना सुनकर उन्हें तप, छेद, मूल आदि जो भी प्रायश्चित्त देना होता है, देते हैं और फिर अपने गच्छ की सामाचारी से अवगत कराते हैं।
गीतार्थ, श्रुतधर-गणी, वाचक आदि बहुश्रुत, जो भी उपसम्पन्न होते हैं, उनकी अपने-अपने गण की अपनीअपनी सामाचारी होती है। उसमें अभ्यस्त होने के कारण वे वर्तमान सामाचारी में स्खलित हो जाते हैं तो उन्हें
बार-बार प्रेरित किया जाता है, इससे उनमें अप्रीति उत्पन्न हो सकती है, कलह हो सकता है। अतः इनसे बचने के लिए उन्हें सर्वप्रथम चक्रवाल सामाचारी का प्रशिक्षण देना चाहिए। १३. उपदेश-स्मारणा-प्रतिस्मारणा
उवएसो सारणा चेव, तइया पडिसारणा। छंदे अवट्टमाणं, अप्पछंदेण वज्जेज्जा॥ निद्दापमायमाइसु, सई तु खलियस्स सारणा होइ। नणु कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणंतो॥ फुड-रुक्खेअचियत्तं, गोणोतुदिओवमाहुपेल्लेजा। सज्ज अओ न भन्नई, धुव सारण तं वयं भणिमो॥
(बृभा १२६६-१२६८) ० उपदेश-सामाचारी में स्खलना करने पर गुरु उपसम्पन्न शिष्य को उपदेश देते हैं-निद्रा. विकथा आदि प्रमाद त्याज्य हैं-यह हमारी सामाचारी है। जो उपदेश के अनुसार वर्तन नहीं करता, उसे गुरु स्व अभिप्राय से विमर्शपूर्वक गच्छ से निष्कासित कर देते हैं। ० स्मारणा-एक बार निद्रा प्रमाद आदि करने पर उसे स्मरण कराना चाहिए कि हमने पहले ही तुम्हें प्रमाद के बारे में बता दिया है, अत: जानते हुए भी प्रमाद मत करो। ० प्रतिस्मारणा-दूसरी, तीसरी बार स्खलना होने पर पुनः सचेत करना प्रतिस्मारणा है। जिसने प्रमाद किया है, उसे सीधा न कहकर अन्य के बहाने सजग करना चाहिए। स्फुट
और रूक्ष शब्दों के प्रयोग से अप्रीति उत्पन्न होती है। इससे वह क्रुद्ध हो उत्प्रव्रजित भी हो सकता है। जैसे भार से लदे बैल को अत्यधिक पीडित करने पर वह भार को गिरा देता है। अतः प्रमाद करने पर तत्काल न कहकर कुछ समय पश्चात् अथवा दूसरे दिन कहना चाहिए। संयमयोगों में प्रमाद करने पर स्मारणा अवश्य करनी चाहिए।
(महानिशीथ के दूसरे अध्ययन में कहा गया हैरूसउ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ। भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥
'कोई रुष्ट हो या न हो, चाहे विषरूप में-विपरीत रूप में अन्यथा ग्रहण करे, तब भी स्वपक्ष- साधुता के लिए जो गुणकारी और हितकारी हो, वैसी भाषा बोलनी चाहिए।)
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