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उपसम्पदा
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आगम विषय कोश-२
गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा..... ८. गुरुप्रेषित-आचार्य ने मुझे श्रुत अध्ययन के लिए आपके नो कप्पड़ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं अनिक्खि- पास भेजा है, ऐसा कहना। वित्ता..."नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्सायरिय- जो मुनि इन अतिचारों से मुक्त होकर अन्य गण की उवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं उपसंपदा स्वीकार करता है, 'आचार्य द्वारा विसर्जित होकर मैं विहरित्तए। णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता॥
आपके पास आया हूं'-ऐसा कहता है, वह शुद्ध है।
(क ४/१६-१८) ५. निर्गमन स्थान : पंजरभग्न-पंजराभिमुख भिक्षु गण से अपक्रमण कर अन्य गण की उपसम्पदा
जयमाणपरिहवेंते, आगमणं तस्स दोहि ठाणेहिं। स्वीकार कर विहरण करना चाहे, वह आचार्य यावत्
पंजरभग्गअभिमुहे, आवासयमादि आयरिए॥ गणावच्छेदक को पूछकर जा सकता है। वे अनुमति नहीं दें
(निभा ६३४९) तो नहीं जा सकता।
साधु दो स्थानों से उपसम्पदा के लिए आते हैंगणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय अन्य गण में
१. यतमान-संविग्न साधुओं के पास से आने वाले, ज्ञानउपसम्पन्न हो विहरण करना चाहें तो वे अपने पदों का दर्शन को उपसम्पदा के लिए समागत। ये साध 'पंजरभग्न'
कहलाते हैं। निक्षेप/त्याग किए बिना तथा आचार्य आदि की अनमति लिए कहलात हा बिना नहीं जा सकते।
२. परिभवत्-पार्श्वस्थ आदि के पास से आने वाले, चारित्र
की उपसम्पदा के लिए समागत । ये साधु पंजराभिमुख कहलाते ४. उपसम्पदा के आठ अतिचार
हैं। आचार्य दोनों प्रकार के साधुओं की आवश्यक आदि पदों .."आपुच्छिऊण गमणं, भीतो य नियत्तते कोती।
से परीक्षा कर उनको उपसम्पन्न करे। चिंतंतो वइगादी संखडि पिसुगादि अपडिसेहे य।
० पंजर शब्द के अर्थ : शकुनि दृष्टांत परिसिल्ले सत्तमए, गुरुपेसविए य सुद्धे य॥
पणगादि संगहो होति पंजरो जा य सारणऽण्णोण्णे। (बृभा ५३६३, ५३६४) पच्छित्तचमढणादी, णिवारणा सउणिदिटुंतो॥ पृच्छा और अनुमति के पश्चात् आचार्य द्वारा विसर्जित
आयरिओ-उवज्झातो पवत्ती थेरो गणावच्छेतितो होकर गमन करने पर आठ अतिचार संभव हैं
एतेहिं पंचहिं परिग्गहितो गच्छो पंजरो भण्णति। आदि१. भयभीत-विवक्षित गण के आचार्य की कठोर चर्या को ग्गहणाओ भिक्ख-वसह-वड-खडगा य घेप्पंति। सुनकर लौट आना।
(निभा ६३५० चू) २. चिंता-मैं जाऊं या न जाऊं-इस चिंतन से जाना।
पंजर शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त है३. वजिका वजिका आदि में प्रतिबद्ध होकर मार्ग से प्रत्यावर्तन
१. पंचकादि संग्रह-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर करना।
और गणावच्छेदक-इन पांचों से परिगृहीत गच्छ पंजर कहलाता ४. संखडि-जीमनवार में प्रतिबद्ध हो जाना।
है। भिक्षु, वृषभ, क्षुल्लक और वृद्ध इसी के अन्तर्गत हैं। ५. पिशुक-पिशुक, दंश-मशक आदि के भय से लौट आना। २. सारणा-वारणा-आचार्य आदि परस्पर सारणा-वारणा करते ६. अप्रतिषेधक-किसी गण के मेधावी शिष्य को अन्य गण हैं-मृदु-मधुर वचनों से प्रेरणा या उपालंभ देते हैं तथा कठोर में जाते देख मार्गवर्ती आचार्य उसको स्वयं नहीं रोकते, किन्तु वचनों से तर्जनापूर्वक प्रायश्चित्त देकर असामाचारी से निवृत्त ऐसा उपाय करते हैं कि वह विपरिणत होकर वहां रुक जाता करते हैं, यह पंजर कहलाता है।
पिंजरे में स्थित पक्षी के स्वच्छन्द गमन का शलाका ७. परिषयुक्त-जिस गण में जा रहा है, वहां की परिषद् आदि द्वारा निवारण किया जाता है। इसी प्रकार गच्छ रूपी संविग्न तथा असंविग्न-दोनों प्रकार की हो, वहां जाना। पंजर में प्रतिबद्ध शिष्य का सारणा-वारणा की शलाका से
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