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आगम विषय कोश-२
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उपसम्पदा
असामाचारीरूप उन्मार्ग में गमन निरुद्ध हो जाता है। ० स्थविर-पीछे आचार्य या मुनिगण वृद्ध हों और वह ६. उपसम्पदा के अयोग्य
उनकी सेवा करता हो। अहिकरण विगति जोए पडिणीए थद्ध लुद्ध णिद्धम्मे। . ग्लान-बहुरोगी-पीछे ग्लान या बहुरोगी अकेला हो और अलसाणुबद्धवेरो, सच्छंदमती परिहियव्वे॥ वह उसकी सेवा करता हो।
(निभा ६३२७) ० निर्धर्म-साधु-परिवार आचार्य की आज्ञा न मानता हो, अपने गण से दस स्थानों से निर्गमन कर आने वाला केवल उसके भय से ही कार्य करता हो। साधु उपसम्पदा की दृष्टि से परिहरणीय है
० प्राभूत-अपने गच्छ में उत्पन्न कलह का उपशमन करने १.गहस्थों अथवा मनियों के साथ कलह हो जाने के कारण। में सक्षम हो. गरु का सहयोगी हो। २. विकृति की प्रतिबद्धता से।
उल्लिखित स्थितियों में सक्षम संवाहक का कार्य करने ३. योगोद्वहन के भय से।
वाला मुनि यदि उपसम्पदा के लिए आता हो तो उसे उपसम्पदा ४. यहां मुनि मेरा प्रत्यनीक है, यह सोचकर।
दिए बिना ही यथोचित प्रायश्चित्त प्रदान कर लौटा देना ५. आचार्य के आने-जाने पर अभ्युत्थान न करने से खरंटना चाहिए। होती है, इस स्तब्धता से।
८. उपसम्पद्यमान की पृच्छा अवधि ६. उत्कृष्ट द्रव्य यहां नहीं मिलते, इस लोलुपता के कारण।
पढमदिणम्मि न पुच्छे, लहुओ मासो उबितिय गुरुओय। ७. यहां आचार्य उग्रदण्ड देते हैं, इस विचार से।
ततियम्मि होंति लहगा, तिण्हं तु वतिक्कमे गुरुगा। ८. भिक्षाचर्या के लिए श्रम करना होता है, इस कारण से। कजेभत्तपरिणा, गिलाण राया व धम्मकहि-वादी। ९. यहां मुनि अनुबद्ध वैर वाले हैं, इस कारण से।
छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वतिक्कमे गुरुगा। १०. यहां आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं है-इस कारण से।
(व्यभा २९८, २९९) ७. योग्य होने पर भी अग्राह्य
उपसम्पदा के लिए आने वाले साधु की प्रथम दिन ही एगे अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगे य, मंदधम्मे य पाहुडे॥
पृच्छा करनी चाहिए कि तुम यहां किस कारण से आये हो? एगाणियं तु मोत्तुं, वत्थादि अकप्पिएहि वा सहित।
" प्रथम दिन पृच्छा किए बिना और आलोचना दिए बिना उसे अप्पाधारो वायण, तं चेव य पुच्छिउं देति॥
___ अपने गण में रखने वाले आचार्य लघुमास प्रायश्चित्त के थेरमतीवमहल्लं, अजंगमं मोत्तु आगतो गुरुं तु।
" भागी होते हैं। दूसरे और तीसरे दिन पृच्छा करने पर क्रमश: सो च परिसा व थेरा, अहं त वावओ तेसिं गुरुमास और चतुर्लघुमास तथा तीन दिनों का अतिक्रमण होने तत्थ गिलाणो एगो, जप्पसरीरो त होति बहरोगी। पर चतुगुरुमास प्रायश्चित्त आता है। निद्धम्मा गुरु-आणं, न करेंति ममं पमोत्तूणं॥ पृच्छा
पृच्छा के कुछ अपवाद हैंएतारिसं विउसज्ज, विप्पवासो न कप्पति।
० आचार्य संघ के किसी विशेष कार्य में संलग्न हों। सीसायरिय पडिच्छे, पायच्छित्तं विहिज्जइ॥
० किसी साधु ने अनशन कर लिया हो।
(व्यभा २५७-२६१) ० कोई साधु ग्लान हो गया हो। ० एकाकी-जो एकाकी आचार्य को छोड़कर आया हो। ० जिज्ञासु धर्मार्थी राजा प्रतिदिन धर्मकथा सुनने आता हो। ० अपरिणत-किसी भी शैक्ष ने वस्त्रैषणा आदि का अध्ययन ० किसी वादी का निग्रह करना हो-इत्यादि प्रयोजनों के कर कल्प न किया हो, उन्हें छोड़कर आया हो।
कारण आचार्य यदि उत्कृष्ट छह माह तक पृच्छा न करे, तब ० अल्पाधार-पीछे आचार्य सूत्रार्थ-निपुण न हों, उसे पूछकर भी प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते। इस समय-सीमा का वाचना देते हों।
व्यतिक्रम होने पर गुरुमास प्रायश्चित्त आता है।
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