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उपाधि
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आगम विषय कोश-२
तृणविशेषं मुजं च शरस्तम्बं प्रथमं .."कुट्टयित्वा तदीयो बारसअंगुलदीहा, अंगुलमेगं तु होति विच्छिण्णा। यः क्षोदस्तं कर्त्तयन्ति। ततः तैः वच्चकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्च घणमसिणणिव्वणा वि य, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं ॥ गोणी बोरको व्यूयते, प्रावरणाऽऽस्तरणानि च देशविशेषं
(निभा ७०९, ७१०) समासाद्य कुर्वन्ति अतस्तन्निष्पन्न रजोहरणं वच्चक- ० रजोहरण-ऋतुबद्धकाल में इससे पैरों का प्रमार्जन किया चिप्पकं भण्यते।
__ (बृभा ३६७५ वृ) जाता है। पिच्चिउत्ति वा, विप्पिउ त्ति वा, कद्रितो त्ति वा ० पादलेखनिका-वर्षाकाल में इससे कर्दम का अपनयन किया
___ जाता है। यह वटमयी, उदुंबरमयी या पिप्पलमयी होती है।
(निभा ८२० की चू) एगटुं।
इसके अभाव में अम्लिकामयी का उपयोग किया जाता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पांच प्रकार के रजोहरण
पादलेखनिका बारह अंगुल लम्बी, एक अंगुल विस्तीर्ण ग्रहण तथा धारण कर सकती हैं
तथा अशुषिर, श्लक्ष्ण और निव्रण (अक्षत) होती है। यह १. और्णिक-ऊन से निष्पन्न।
प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी-अपनी होती है। २. औष्ट्रिक-ऊंट के केशों से निष्पन्न।
अब्भितरं च बझं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं।" ३. सानक--सन-वृक्ष की छाल से निष्पन्न।
(बृभा ३६७४) ४. वच्चापिच्चिय-दर्भ के आकार वाली मोटी घास (वल्वज)
जो आभ्यन्तर तथा बाह्य रजों का हरण करता है, वह को कूटकर बनाया हुआ।
रजोहरण है। रजोहरण बाह्य रजों का हरण करता है, यह चिप्पक, पिच्चिय, विप्पिय और कुट्टित एकार्थक हैं।
स्पष्ट है किन्तु आभ्यन्तर रजों का हरण कैसे करता है? धर्मचक्रभूमि-समवसरणभूमि वाले देश में यह प्रथा
आचार्य कहते हैं-मुनि रजोहरण से भूमि प्रमार्जित कर वस्तु थी कि लोग इस घास को कूटकर, उसका क्षोद बना लेते थे।
का आदाननिक्षेप आदि संयमव्यापार करता है। उससे अष्ट फिर उसके टुकड़े-टुकड़े कर उसके बोरे बनाते थे। कहीं
कर्मरूपी रजों का हरण होता है. इस अपेक्षा से उसे आभ्यन्तर कहीं प्रावरण और बिछौने भी बनाए जाते थे। इससे सूत रजों का हरण करने वाला कहा गया है। निकालकर रजोहरण गूंथे जाते थे।
उपसम्पदा-प्रयोजनवश एक गण से अपक्रमण कर ५. मुंजापिच्चिय-कूटी हुई मूंज से बने बोरों से तंतु निकालकर
दूसरे गण में जाकर, वहां की सामाचारी को बनाया गया।
स्वीकार करना। ० और्णिक रजोहरण उपयोगी
१. उपसम्पदा के प्रयोजन एवं प्रकार उट्ट-सणा कुच्छंती, उल्ला इयरेसु मद्दवं णत्थि।
वैयावृत्त्य चारित्र उपसम्पदा तेणोणियं पसत्थं,
०क्षपणा (तप) चारित्र उपसम्पदा
(बृभा ३६७८) २. गणसंक्रमण के पांच हेतु औष्ट्रिक और सनक रजोहरण वर्षाकाल में आई ० सम्भोजार्थ उपसम्पदा : चारित्राचार में श्लथता होने पर कुथित हो जाते हैं, जिससे उनमें पनक आदि जीव o आचार्य के उपसम्पदा ग्रहण के हेतु उत्पन्न हो जाते हैं। वच्चक और मूंज के रजोहरण स्वभावतः
३. गण-संक्रमण से पूर्व अनुमति अनिवार्य
४. उपसम्पदा के आठ अतिचार कठोर होते हैं, अत: और्णिक रजोहरण ही प्रशस्त है।
५. निर्गमन स्थान : पंजरभग्न-पंजराभिमुख ४४. रजोहरण और पादलेखनिका का प्रयोजन
। ० पंजर शब्द के अर्थ : शकुनि दृष्टांत उडुबद्धे रयहरणं, वासावासासु पादलेहणिया। ६. उपसम्पदा के अयोग्य वडउंबरे पिलक्खू, तेसि अलंभम्मि अंबिलिया॥ ७. योग्य होने पर भी अग्राह्य
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