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आगम विषय कोश - २
८. उपसम्पद्यमान की पृच्छा अवधि ९. उपसम्पन्न की परीक्षा के आठ बिंदु १०. मार्गवर्ती उपसम्पदा : इत्वर दिग्बंध
o आचार्य द्वारा आत्म परीक्षण
० पर तुलना (शिष्य-परीक्षा) : स्नुषा दृष्टांत ११. उपसम्पन्न द्वारा आचार्य की परीक्षा १२. आलोचना श्रवण व सामाचारी बोध * उपसम्पदा आलोचना
१३. उपदेश स्मारणा-प्रतिस्मारणा
१४. सारणा की अनिवार्यता प्रमादी का परित्याग १५. प्रमादी द्वारा पश्चात्ताप, गच्छ द्वारा निवेदन १६. स्मारणा आपातकटु : गुटिकांजन दृष्टांत १७. उपसम्पदा के आकर्षण बिंदु : देशाटन आदि १८. उपसम्पदाकाल के विकल्प
१९. रत्नाधिक की उपसम्पदा (नेतृत्व) अनिवार्य २०. शैक्ष और रानिक के पारस्परिक कर्त्तव्य
उपसम्पदा के तीन प्रयोजन हैं१. ज्ञान निमित्त २. दर्शन निमित्त ज्ञान और दर्शन उपसम्पदा के
१. उपसम्पदा
प्रयोजन एवं प्रकार
सो पुण उवसंपज्जे, नाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा । वत्तणा संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ - तदुभए ।'' .....उवसंपदा चरित्ते, वेयावच्चे य खमणे य ॥ (व्यभा २८४ - २८६ )
अर्थ और तदुभय ।
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द्र आलोचना
इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं
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३. चारित्र निमित्त । तीन प्रकार हैं
-सूत्र,
१. वर्त्तना - पूर्वगृहीत सूत्र आदि का पुनः पुनः अभ्यास । २. संधान - जो पूर्वगृहीत है किन्तु विस्मृत हो गया है, उसका पुनः संस्थापन।
३. ग्रहण - अपूर्व श्रुत का ग्रहण |
( दर्शन उपसम्पदा का ग्रहण दर्शनप्रभावक और दर्शनविशोधक ग्रन्थों के अध्ययन के लिए होता है | ) चारित्र उपसम्पदा के दो प्रकार हैं
१. वैयावृत्त्य हेतु २. क्षपणा (तपस्या) हेतु ।
वैयावृत्त्य चारित्र उपसम्पदा
.....वेयावच्चकरो पुण, इत्तरितो आवकहिओ य ॥
उपसम्पदा
तुल्लेसु जो सलद्धी, अन्नस्स व वारएणऽनिच्छंते । तुल्लेसु व आवकही, तस्सऽणुमएण च इत्तरिओ ॥ ( व्यभा २९०, २९१ )
वैयावृत्त्य के लिए उपसम्पन्न के दो प्रकार हैं- इत्वरिक और यावत्कथिक । वैयावृत्त्यकारापणविधि - एक गच्छवासी सेवार्थी मुनि और एक आगन्तुक मुनि, जो सेवा का इच्छुक है- दोनों में जो लब्धिसंपन्न है, उसे आचार्य की सेवा में और अलब्धिसम्पन्न को उपाध्याय आदि की सेवा में नियुक्त किया जाता है। यदि वह उपाध्याय का वैयावृत्त्य करना न चाहे तो दोनों को बारीबारी से वैयावृत्त्य में नियुक्त करना चाहिए ।
दोनों ही मुनि लब्धिमान हैं और यावत्कथिक हैं तो एक को आचार्य की और दूसरे को उपाध्याय की सेवा में नियोजित किया जाता है। दोनों को यह मान्य न हो तो जो आगंतुक है, उसे विसर्जित कर दिया जाता है।
दोनों सलब्धिक और इत्वरिक हों तो आगंतुक को उपाध्याय आदि की सेवा में नियोजित किया जाता है। यदि वह आचार्य का वैयावृत्त्य करना चाहे तो वास्तव्य मुनि की अनुमति से कुछ समय तक प्रतीक्षा करे, फिर आचार्य की सेवा करे ।
० क्षपणा ( तप) चारित्र उपसम्पदा
आवकही इत्तरिए, इत्तरियं विगिट्ठ तह विगिट्ठे य । सगणामंतण खमणे, अणिच्छमाणं न तु निओए ॥ अविकि किलम्मंतं, भांति मा खम करेहि सज्झायं । सक्का किलम्मितुंजे, वि विगिद्वेणं तहिं वितरे ॥ ..... पडिलेहण-संथारग, पाणग तह मत्तगतिगं च ॥ ( व्यभा २९३ - २९५ )
उपसम्पद्यमान क्षपक के दो प्रकार हैं- यावत्कथिक और इत्वरिक । इत्वरिक के दो भेद हैं
१. अविकृष्ट तप - उपवास, बेला, तेला करने वाला । २. विकृष्ट तप - चोला आदि करने वाला ।
इस उपसम्पदा से पूर्व आचार्य अपने गच्छ को आमंत्रित कर पूछते हैं
आर्यो ! अमुक साधु तप:साधना के लिए यहां आया
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