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आगम विषय कोश-२
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आलोचना
० भद्र बालक की तरह आलोचना
२३. अनशनकाल में आलोचना विधि जह बालो जंपतो, कज्जमकजं च उज्जुयं भणति। पव्वज्जादी आलोयणा उ तिण्हं चउक्कग विसोधी। तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ॥ जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तमम्मि। उप्पन्ना उप्पन्ना, मायामणुमग्गतो निहंतव्वा । नाणनिमित्तं आसेवियं तु, वितहं परूवियं वावि। आलोयण-निंदण-गरहणादि न पुणो य बितियं ति॥ चेतणमचेतणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु॥
(व्यभा ४२९९, ४३००) नाणनिमित्तं अद्धाणमेति ओमे य अच्छति तदट्ठा। जैसे एक भद्र बालक अपने अच्छे-बुरे कार्य को ऋजुता
नाणं च आगमेस्सं, ति कुणति परिकम्मणं देहे।। से बता देता है, वैसे ही आलोचक माया और अहंकार से पडिसेवति विगतीओ, मेझं दव्वं व एसती पिबती। विमुक्त होकर गुरु के सामने आलोचना करे।
वायंतस्स व किरिया, कता तु पणगादिहाणीए॥ ___ 'अब मैं पुनः दूसरी बार अतिचार का सेवन नहीं एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणत्तं। करूंगा'-इस प्रतिपत्ति के साथ वह बार-बार कृत माया- एसण इत्थी दोसे, वतं ति चरणे सिया सेवा॥ स्खलना को याद करके उसको आलोचना, निन्दा और गर्दा
(व्यभा ४३०२-४३०६) के द्वारा क्षीण करे।
मुनि को अनशन स्वीकार करते समय प्रव्रज्या ग्रहण २२. आचार्य के लिए भी आलोचना अनिवार्य से लेकर अनशन धारण तक ज्ञान-दर्शन-चारित्र संबंधी अतिचारों
आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे ताधे। की आलोचना करनी चाहिए। जो स्वयं को ज्ञात है-जिस रूप सव्वेण अत्तसोधी, कायव्वा एस उवदेसो॥ में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संबंधी अतिचार का आसेवन किया जहसुकुसलो विवेजो, अन्नस्स कधेतिअप्पणोवाहिं। है, उसका गोपन न करते हुए उसी रूप में गुरु के समक्ष निवेदन वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते॥ करना चाहिए। जाणंतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं। ज्ञान-अतिचार-आलोचना-इसके चार प्रकार हैंतह वि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होति॥ द्रव्य से-ज्ञान के निमित्त उद्गम आदि दोषों से दूषित द्रव्य छत्तीसगुणसमन्नागतेण, तेण वि अवस्स कायव्वा। का आसेवन किया हो, सचित्त को अचित्त तथा अचित्त को परपक्खिगा विसोधी, सुटु वि ववहारकुसलेणं॥ सचित्त निरूपित कर तत्त्वों की विपरीत प्ररूपणा की हो तो
__ (व्यभा ४२९५-४२९८) आलोचना करे। जो अनशन करना चाहते हैं, उन्हें शक्ति होने पर क्षेत्र और काल से-ज्ञान के निमित्त अन्यत्र जाते समय मार्ग में आचार्यचरणों में पहुंचकर आत्मविशोधि करनी चाहिए-यह सचित्त, अकल्पिक के ग्रहण-आसेवन में यतना-अयतना की अर्हतों का उपदेश है।
आलोचना करना क्षेत्रतः आलोचना है। दुर्भिक्ष के समय एक जैसे चिकित्सापारगामी वैद्य भी अपनी व्याधि को स्थान पर रहते हुए अयतना अथवा अकल्पिक प्रतिसेवना की अपर वैद्य को बताता है। पारगामी वैद्य की व्याधि-वार्ता सुनकर अपर वैद्य उसकी चिकित्सा प्रारंभ करता है, वैसे भाव से-ज्ञानोपलब्धि के लिए देहपरिकर्म किया हो। जैसेही निपुण प्रायश्चित्त विधिवेत्ता को भी अन्य आचार्य के । व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा महाकल्पश्रुत जैसे आकर ग्रंथों के पास प्रकट रूप में आलोचना करनी चाहिए।
योगवहन के लिए घृतपान किया हो, प्रणीत आहार किया हो, जो आचार्य के छत्तीस गुणों से सम्पन्न हैं, आगम आदि निरंतर विकृति (विगय) सेवन किया हो, मेधावर्धक (मेधा पांच व्यवहार प्रयोगों में कुशल हैं, उन्हें भी अवश्य ही अन्य उपकारक) द्रव्यों की एषणा की हो, उनका सेवन किया होआचार्य के पास विशोधि करनी चाहिए।
इन सब क्रियाओं में हुई अयतना की आलोचना करे।
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