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आगम विषय कोश- २
पांच व्यक्ति भी हो सकते हैं। पांच विकल्प
१. स्थविरा स्थविर के पास
तीन
२. स्थविरा तरुण के पास ३. तरुणी स्थविर के पास ४. तरुणी तरुण के पास - ५. सदृश वय में - पांच
(प्राचीनकाल में साध्वी को छेदसूत्र की वाचना दी जाती थी और अपेक्षा होने पर साधु भी साध्वी के पास आलोचना करते थे।—द्र छेदसूत्र) १८. निषद्या - दिशा आदि
निसेज्जऽसति पडिहारिय, कितिकम्मंकाउ पंजलुक्कुडुओ । बहुपडि सेवऽरिसासु य, अणुण्णावेड निसेज्जगतो ॥
ओणा उद्घट्टिया उ आलोयणा विवक्खम्मि । सरिपक्खे उक्कुडुओ, पंजलिविट्ठो वणुण्णातो ॥ (व्यभा ३१५, २३७३)
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तीन
तीन
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आलोचना करने वाला अपने नवीन कल्पों (कंबल आदि) से और अपने पास कल्प न हो तो अन्य से प्रातिहारिक कल्प ग्रहण कर आचार्य की निषद्या करता है।
(निषीदन दिशा - यदि आचार्य पूर्वाभिमुख हैं तो वह गुरु के दाहिनी ओर उत्तराभिमुख बैठता है और यदि आचार्य उत्तराभिमुख बैठे हैं तो वह वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख बैठता है अथवा चरन्ती दिशाभिमुख बैठता है ।)
तत्पश्चात् वह कृतिकर्म कर बद्धांजलि हो सामान्यतः उत्कुटुकासन में आलोचना करता है। बहुप्रतिसेवना के कारण आलोचना में लम्बा समय लगे, उतने समय तक वह इस आसन में न बैठ सके या अर्श आदि रोग हो तो गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर यथेच्छ आसन में स्थित हो आलोचना करता है।
विपक्ष में- साध्वी साधु के पास कुछ झुकी हुई खड़ीखड़ी आलोचना करती है । साधु साधु के पास उत्कुटुकासन में बैठ बद्धांजलि हो आलोचना करता है।
निषद्या की अनिवार्यता : राजा-नापित दृष्टांत ......... अथवा वि सभावेणं, निमंसुगे......॥ भवतु यो वास वा नियमेन तस्य निषद्यां कृत्वा आलोचकेनालोचयितव्यम् । (व्यभा ५८६ वृ) शिष्य ने पूछा- यदि कोई आलोचनार्ह आचार्य आदि
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आलोचना
स्वभाव से ही निषद्या पर बैठना न चाहे, तो उसके लिए निषद्या करनी चाहिए या नहीं ? गुरु ने कहा- कोई चाहे, न चाहे, निषद्या अवश्य करनी चाहिये ।
एक राजा के सिर में बाल नहीं थे, दाढ़ी-मूंछ भी नहीं थी। इसलिए वहां नियुक्त नापित राजा के पास नहीं आता था । राजा ने उसे निष्कासित कर दूसरा नापित नियुक्त किया, जो हर सातवें दिन उपस्थित हो जाता था । उसे पुरस्कृत किया गया।
इसी प्रकार निषद्या किए बिना आलोचना करने वाला आलोचक दण्डित और निषद्या करने वाला प्रशंसित होता है। १९. निषद्या विवेक : सिंहानुग आदि आलोचनाह
आयरिए कह सोधी, सीहाणुग वसभ कोल्हुगाणूए । आलोचका अपि त्रिविधास्तद्यथा - आचार्या वृषभा भिक्षवश्च । एकैके त्रिविधकल्पाः – सिंहानुगाः वृषभानुगाः क्रोष्टुकानुगाश्च । नवरं क्रोष्टुकानुगे विशेषः । स यदा निषद्यायां पादप्रोञ्छने वा उत्कुटुको वा आलोचयति, तत्र यद्युत्कुटुकः स आलोचयति, ततः शुद्धिः । (व्यभा ५८६ वृ)
आलोचना के तीन प्रकार हैं
१. सिंहानुग - जो महान् (अनेक कल्पों-कम्बलों वाली) निषद्या पर स्थित हो वाचना देता है
२. वृषभानुग - जो एक कल्प वाली निषद्या पर स्थित हो वाचना देता है अथवा बैठता है।
३. क्रोष्टुकानुग - जो रजोहरणनिषद्या या औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर स्थित हो वाचना देता है अथवा बैठता है ।
आलोचक के तीन प्रकार हैं- आचार्य, वृषभ और भिक्षु । इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं- सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग ।
सिंहानुग आचार्य के समक्ष आलोचक आचार्य यदि सिंहानुग हो आलोचना करता है तो वह अशुद्ध है, प्रायश्चित्त का भागी है। वृषभानुगत्व या क्रोष्टुकानुगत्व उसके लिए शुद्ध है। इसी प्रकार क्रोष्टुकानुग गीतार्थ भिक्षु के समक्ष आलोचक आचार्य उत्कुटुकासन में आलोचना करता है, तो वह शुद्ध है । आलोचनार्ह ऊपर और आलोचक नीचे बैठेयह आलोचना की सामाचारी या मर्यादा है। आलोचनाई की अनुज्ञा से किसी भी आसन में बैठा जा सकता है।
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