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उत्सारकल्प
आगम विषय कोश-२
० जिस क्षेत्र में स्वपक्ष और परपक्ष से अवमानना होती हो। श्रीकृष्ण भी स्तवना करते हैं। मुझे इन्हें भोजन देना चाहिए। ० साधु शीत आदि सहने में असमर्थ हों।
यों विचारकर वह मुनि को भक्तिभाव से अपने घर ले गया ० गृहस्थ मंदधर्मा हों-प्रज्ञापित किए बिना वस्त्र आदि न और मोदकों का दान दिया। देते हों।
मुनि ने अपनी लब्धि की भिक्षा जानकर उसे ग्रहण ० साधु शुद्ध उपधि की गवेषणा करे फिर भी वह जिस किया और भगवान् के पास गये। भगवान् ने रहस्योद्घाटन किसी साधु को न मिले, वह दुर्लभ हो, ऐसी स्थिति में करते हुए कहा-आयुष्मन्! यह भिक्षा तुम्हारी लब्धि की अल्पमेधा वाले लब्धिसम्पन्न शिष्य को वस्त्रैषणा आदि नहीं अपितु श्रीकृष्ण की लब्धि की है। अतः यह भिक्षा अध्ययनों की वाचना देकर उसे कल्पिक बनाया जाता है।
वह गीतार्थ साधु के साथ वस्त्र आदि की प्राप्ति के शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ८) लिए जाए। यदि गीतार्थ साधु उसकी लब्धि का उपहनन करते परपुण्योपघातक दृष्टांत-पांच सौ व्यक्तियों का एक सार्थ हों तो वह अकेला ही वस्त्र आदि की गवेषणा करे। क्योंकि अटवी में भटक गया। उसके साथ एक अभागी रक्तपट भिक्षु उसने उत्सारकल्पकरण द्वारा आचारांग के अन्तर्गत वस्त्रैषणा भी था। उसने उन पांच सौ व्यक्तियों के पुण्य का उपहनन अध्ययन (आचूला-५) के सूत्रार्थ को जान लिया है। कर दिया। सब प्यास से व्याकुल थे। उनसे कुछ दूरी पर ढंढण दृष्टांत-शिष्य ने जिज्ञासा की-भंते ! आपने कहा कि बादल बरस रहे थे किन्तु उनको एक बूंद भी नहीं मिल रही वे गीतार्थ उसकी लब्धि का उपघात करते हैं। क्या कोई थी। सार्थ दो भागों में बंट गया। रक्तपट भिक्षु प्रथम विभाग किसी की लब्धि का उपघात कर सकता है? क्योंकि लब्धि के साथ मिल गया। वर्षा सर्वत्र होने लगी, परन्तु वह भिक्षु तो लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है। जहां था, वहां वर्षा नहीं हुई। सार्थ के लोगों ने उसे निकाल
गरु ने कहा-शिष्य! क्या तमने सप्रसिद्ध ढंढण दिया। वह अकेला हो गया। जहां वह रहा, वहां वर्षा नहीं महर्षि की अलब्धि की घटना नहीं सुनी?
हई। अन्यत्र वर्षा का अभाव नहीं रहा। (ढंढणकुमार अर्हत् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित हुए। ५. उत्सारकारक की अर्हता उनके गहन अंतराय कर्म का बंधन था, जिससे उन्हें आहार- आयार-दिट्ठिवायत्थजाणए पुरिस-कारणविहिन्नू। पानी की प्राप्ति नहीं होती थी। दूसरे साधु भी यदि उनके साथ संविग्गमपरितंते, अरिहइ उस्सारणं काउं॥ जाते तो उन्हें भी आहार-पानी नहीं मिलता।
(बृभा ७३२) एक बार ढंढण मुनि ने अभिग्रह कर लिया कि मुझे उत्सारकल्पकारक वही हो सकता है. अपनी लब्धि का आहार मिलेगा तो आहार लूंगा अन्यथा ० जो आचारांग और दृष्टिवाद का ज्ञाता है। (मुख्यतः दो नहीं। वे भिक्षा के लिए प्रतिदिन जाते, पर आहार का सुयोग आगम-ग्रंथ उत्सारणीय हैं)। नहीं मिलता। छह माह बीत गए। शरीर दुर्बल हो गया। जो उत्सारकल्प के योग्य पुरुष को जानता है।
एक बार ढंढण मुनि भिक्षार्थ गए हुए थे। श्रीकृष्ण ने जो कारणविधिज्ञ है-उत्सारण का कारण विद्यमान है या भगवान् अरिष्टनेमि से प्रश्न किया-भगवन्! आपके १८००० नहीं-इसे जानता है। साधओं में कौन मनि साधना में सर्वश्रेष्ठ है। भगवान ने जो संविग्न-मोक्षाभिलाषी है। ढंढण मुनि का नाम बताते हुए कहा कि उसने अलाभ परीषह ० जो दिन-रात वाचना देने पर भी परिश्रांत नहीं होता। को जीत लिया है।
६. दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों? __श्रीकृष्ण ने भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए ढंढण मुनि के कालियसुआणुओगम्मि गंडियाणं समोयरणहेउं। दर्शन किए, पुनः पुनः स्तवना की। इसे एक हलवाई ने देखा उस्सारिंति सुविहिया, भूयावायं न अन्नेणं॥ और सोचा-ये अवश्य ही पहंचे हए साधक हैं, जिनकी
(बृभा ७४४)
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