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उपधि
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आगम विषय कोश-२
जो अपने गच्छ से उन्निष्क्रमण कर अन्य सांभोजिक पहनिग्गयादियाणं, विजाणणट्ठाय तत्थ चोदेति। संविग्नों के पास चला जाता है और उनके द्वारा अनुशासित सुद्धासुद्धनिमित्तं, कीरतु चिंधं इमं तु तहिं ॥ होने पर लौट आता है तो उसकी उपधि उपहत नहीं होती, एगा दो तिन्नि वली, वत्थे कीरंति पाय-चीराणि। केवल लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। पार्श्वस्थ आदि के छुब्भंतु चोदगेणं, इति उदिते बेति आयरिओ॥ पास रहने वाले की उपधि उपहत होती है। संविग्न से सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्ध वातवसा। अनुशिष्टि प्राप्त कर उसी दिन लौटने वाला साधु यद्यपि उस तेण ति दुगेग गंथी, वत्थे पादम्मि रेहा ऊ॥ दिन गच्छ में सम्मिलित नहीं होता है किन्तु वजिका आदि
(व्यभा ३५८४-३५८७) स्थानों में प्रतिबद्ध भी नहीं होता है तो उसकी उपधि दीर्घ काल
उपधिपरिष्ठापनिका के दो प्रकार हैं-जाता और तक भी उपहत नहीं होती।
अजाता। जाता का अर्थ है अभियोगकृत (वशीकरणयुक्त) जो पार्श्वस्थ का परिहार करने पर भी यदि रात्री में अथवा मलगण-उत्तरगण से अशद्ध उपधि।। अकेला सोता है तो उसकी उपधि उपहत हो जाती है।
दोषों से युक्त उपधि का छेदन-भेदन कर तथा ० लिंग अवधावन से उपहत उपधि
निर्दोष उपकरणों का अक्षत रूप में परिष्ठापन करना चाहिए। नीसंकिओ वि गंतूण दोहि वग्गेहि चोदितो एति। मार्गवर्ती साधुओं की उपहतउपधि संबंधी जानकारी तक्खण णितं ण हम्मे, तहि परिणत वुत्थ उवहम्मे के लिए शुद्ध और अशुद्ध उपधि को चिह्नित करना चाहिए। अत्तट्ठाए परस्स व पडिलेहति रक्खिओ वि हु ण हम्मे।" मूलगुण से अशुद्ध वस्त्र पर एक चक्र, उत्तरगुण से अशुद्ध
(निभा ४५९९, ४६००) पर दो चक्र तथा मूल-उत्तरगुण से शुद्ध वस्त्र पर तीन चक्र 'मैं अवश्य उत्प्रव्रजित होऊंगा'-इस निश्चय के करके परिष्ठापन करना चाहिए। साथ अवधावन करने वाला साधु संविग्न और असंविग्न-- मूलगुण से अशुद्ध पात्र में एक चीवरखंड या एक दोनों वर्गों से प्रतिबोध प्राप्त कर पुनः प्रव्रज्या हेतु पार्श्वस्थ प्रस्तर, उत्तरगुण से अशुद्ध पात्र में दो चीवरखंड या दो प्रस्तर आदि के पास से तत्क्षण निकल जाता है तो उसकी उपधि तथा शुद्ध पात्र में तीन चीवर या तीन प्रस्तर डालकर परिष्ठापन उपहत नहीं होती।
करना चाहिए। 'मैं पार्श्वस्थ आदि के पास रहूंगा'-इस भाव में हवा आदि के कारण चक्र के बनने और चीवर के परिणत होकर वह एक रात या क्षणमात्र भी वहां रहता है उड़ने-गिरने से शुद्ध वस्त्र-पात्र अशुद्ध हो सकते हैं, अशुद्ध तो उसकी उपधि उपहत होती है। जो उपकरणों को लेकर शुद्ध हो सकते हैं। अतः परिष्ठापन की यह विधि होनी अवधावन करता है. गहस्थ बन जाता है और 'मैं पनः चाहिए-मूल-उत्तरगुण से शुद्ध वस्त्र में तीन गांठ, उत्तरगुण मुनि बनूंगा' इस भाव से उन उपकरणों का संरक्षण करता से अशुद्ध में दो तथा मूलगुण से अशुद्ध में एक गांठ लगाकर है या दूसरे मुनियों को दूंगा'-इस भाव से उनकी प्रतिलेखना विसर्जित करे। इसी प्रकार पात्र को तीन, दो या एक रेखा से करता है या नहीं भी करता है, तब भी वे उपकरण उपहत चिह्नित कर विसर्जित करे। नहीं होते। इसका कारण यह है कि वह व्यक्ति गृहस्थ के
(उपकरणों का परिष्ठापन गर्त. तरु. तडाग. कप तुल्य है। जहां चारित्र नहीं है, वहां उपकरणों के उपघात
आदि के समीप किया जाता था। अशिव आदि कारणों से का प्रश्न ही नहीं है।
उपधि की अत्यंत अपेक्षा होने पर विसर्जित उपधि को पन: ८. उपधि परिष्ठापन की प्राचीन विधि
ग्रहण कर लिया जाता था।-व्यभा ३५८८ की वृ) दुविहा जातमजाता, जाता अभियोग तह असुद्धा य। ९. कृत्स्न वस्त्र के प्रकार अभियोगादी छेत्तुं, इतरं पुण अक्खुतं चेव॥ दुविहं तु दव्वकसिणं, सकलक्कसिणंपमाणकसिणंचा
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