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आगम विषय कोश-२
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उपधि
जो गणचिंतक (गणावच्छेदक आदि) है, उसके पास पाडिहारियं वत्थं जाएज्जा-एगाहेण वा पंचाहेण वा उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य-सब प्रकार की उपधि होती है, विप्पवसिय-विप्पवसिय उवागच्छेज्जा, तहप्पगारंवत्थं णो उससे गण का उपग्रह होता है।
अप्पणा गिण्हेज्जा,""वत्थं ससंधियं तस्स चेव णिसिरेज्जा, ४. स्थविर की उपधि : दूसरी बार अवग्रह-ग्रहण णो णं साइजेज्जा॥
थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा "तहप्पगारं पडिग्गहं....'णो णं साइज्जेज्जा॥ छत्तए वा मत्तए वा लट्ठिया वा चेले वा चेलचिलिमिलिया
(आचूला ५/४६; ६/५४) वा चम्मे वा चम्मकोसए वा चम्मपलिच्छेयणाए वा अवि- कोई भिक्षु अथवा भिक्षुणी (दूसरे भिक्षु से) मुहूर्त रहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए भर (नियतकाल) के लिए प्रातिहारिक वस्त्र की याचना पविसित्तए वा निक्खमित्तए वा।कप्पड़ ण्हं संनियट्टचारीणं करे-वह अकेला एक दिन यावत् पांच दिन अन्यत्र प्रवास दोच्चं पिओग्गहं अणण्णवेत्ता परिहरित्तए॥ (व्य ८/५) कर लौटे, उस प्रकार के (उपहत) वस्त्र को (समर्पित
करने पर) वस्त्रस्वामी स्वयं ग्रहण न करे... वैसे उपहत स्थविरभूमिप्राप्त स्थविर दंड, भांड, छत्र, मात्रक,
वस्त्र को उसी को (उपहत करने वाले को ही) सौंप दे, यष्टिका, वस्त्र, वस्त्र की चिलिमिली, चर्म, चर्मकोश
वस्त्रस्वामी उसका परिभोग न करे। (उपानद्) और चर्मपरिच्छेदनक रख सकते हैं। वे इन्हें
इसी प्रकार उपहत पात्र भी ग्रहण न करे। अविरहित स्थान में रखकर (किसी को संभलाकर या
० विहार अवधावन से उपहत उपधि सूचित कर या उनकी सुरक्षा में नियुक्त कर) गृहपति के घर भिक्षा के लिए जा-आ सकते हैं। भिक्षाचर्या से लौटकर
खग्गूडेण उवहते, अमणुण्णेणागयस्स वा जं तु।
असंभोइयउवगरणं दूसरी बार (नियुक्त व्यक्ति से) आज्ञा लेकर उनका उपयोग
तिट्ठाणे संवेगो, सापेक्खो नियट्टो य तद्दिवससुद्धो। कर सकते हैं।
मासो वुत्थ विगिंचण............॥ ५. उपकरण सहित विहार
संविग्गाण सगासे, वुत्थो तेहिमणुसासिय णियत्तो। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे
णो उवहम्मइ............। सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइज्जेज्जा॥
संविग्गादणुसट्ठो, तद्दिवसणियत्तो जइ विण मिलेज्जा। (आचूला १/३९)
ण य सज्जइ वइगाइसु सुचिरेणऽवि तो न उवहम्मे। भिक्षु अथवा भिक्षुणी ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए एगाणियस्स सुवणे, मासो उवहम्मए य से उवही।" सब भण्डोपकरण साथ में लेकर ग्रामानुग्राम परिव्रजन करे।
(निभा ४५८१, ४५८२, ४५८८-४५९०) ६. वर्षाकाल में उपधि का अग्रहण
वक्र सामाचारी वाले से उपधि उपहत होती है। पढमसमोसरणं वरिसाकालो भण्णति। तत्थ य
जो पार्श्वस्थ आदि असांभोजिक के पास से आया है भगवयाणाणुण्णायं उवहिगहणं।तम्मि अणणण्णातेगहणं
और उद्यत विहार के अभिमख है. उसके असांभोजिक करेंतस्स अदत्तं भवति। (निभा ३३५ की चू)
उपकरण उपहत होते हैं।
कोई साधु गच्छ से निर्गत हो गया. किन्त संयम वर्षाकाल को प्रथम समवसरण कहा जाता है। उस
सापेक्षचित्त वाला वह त्रिस्थान में संवेग (ज्ञान, दर्शन, काल में उपधि का ग्रहण भगवान् द्वारा अनुज्ञात नहीं है।
चारित्र की शुद्धि और वृद्धि की पिपासा) उत्पन्न होने पर अत: उस काल में उपधि ग्रहण करने से अदत्तादान विरमण
उसी दिन गच्छ में लौट आता है, तो उसकी उपधि उपहत व्रत भंग होता है।
नहीं होती। यदि वह असंविग्नों के साथ रहकर आता है तो ७. उपहत उपधि का अग्रहण
उसको मासलघु प्रायश्चित्त आता है और उसकी उपहत उपधि से भिक्खूवा भिक्खुणी वा एगइओ मुहुत्तगं-मुहत्तगं परिष्ठापनीय होती है।
लहुगो
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