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उत्सारकल्प
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आगम विषय कोश-२
आये। वे वादकुशल थे। अन्यतीर्थिकों ने आचार्य का पराभव हमें एक ही दिन में समग्र श्रुतस्कन्ध की वाचना की अनुज्ञा दे करने के लिए वाद-विवाद का आयोजन किया। पर वे स्वयं दी है, अब इसे पढ़ने से क्या?"-यह सोचकर वे उत्सारकल्पी पराभूत हो गए और पराभव से उत्पीड़ित हो अवसर की प्रतीक्षा अध्ययन में त्वरता नहीं करते और न चिरकाल तक योग करने लगे।
(तप अनुष्ठान) से नियमित होते हैं। कुछ दिनों पश्चात् उसी नगर में एक पंडितमानी हमने 'वाचक' का महान सम्बोधन प्राप्त कर लिया उत्सारकल्पिक वाचक आया। प्रतिशोध लेने के लिए अन्यतीर्थिकों है-अब हम गुरु-सन्निधि में क्यों रहें? यह सोचकर वे ने पहले गुप्त रूप से एक प्रत्युपेक्षक को यह जानने के लिए पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में स्वतंत्र विहरण करने लगते हैं। भेजा कि नवागंतुक वाचक तत्त्ववेत्ता वाग्मी है या नहीं? उस वे योगक्रम को नहीं जानते-आगम अध्ययनकाल में प्रत्युपेक्षक ने उत्सारकल्पिक से पूछा-परमाणु-पुद्गल के कौन-सा योगवहन करना है, अमुक योग में इतने आयंबिल कितनी इन्द्रियां होती हैं? पल्लवग्राही वाचक ने कहा- आदि करणीय हैं। वे यह भी नहीं जानते कि किस योग में परमाणु एक समय में लोक के एक चरमान्त से दूसरे चरमान्त कितनी विकृति वर्जनीय है। तक चला जाता है, अतः निश्चित ही वह पंचेन्द्रिय है, . प्रवचन आदि का विच्छेद : घंटाशृगाल दृष्टांत अन्यथा ऐसी गमनवीर्य लब्धि नहीं हो सकती। यह उत्तर ....... अण्णस्स वि दिति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो॥ सुनकर प्रश्नकर्ता ने सारी बात अन्यतीर्थिकों को बता दी। वे उच्छुकरणोव कोट्टगपडणं घंटासियालनासणया। सब इकट्ठे होकर आ गए। अनेक प्रश्न पूछे। उत्सारकल्पिक विगमाई पुच्छ परंपराएँ नासंति जा सीहो। वाचक ने किसी भी प्रश्न का सही समाधान नहीं दिया, अंत पडियरिउं सीहेणं, स हओ आसासिया मिगगणा य। में वह निरुत्तर हो गया। ऐसी स्थिति में प्रवचन की लघुता इय कइवयाइँ जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी॥ होती है। इसके गुरु भी तत्त्वज्ञानी नहीं हैं, अन्यथा यह ऐसी किं पि त्ति अन्नपुट्ठो, पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती। प्ररूपणा क्यों करता?' इस विपरिणाम के कारण नवश्रद्धालु गीताऽऽगमण खरंटण, पच्छित्तं कित्तिया चेव॥ अपना सम्यक् दृष्टिकोण खो देते हैं।
अप्पत्ताण उ दिंतेण अप्पओ इह परत्थ वि य चत्तो। ० संयम विराधना-उत्सारकल्पी सूत्रवाचनामात्र से अनुयोग सो वि अ हु तेण चत्तो, जं न पढइ तेण गव्वेणं॥ में अवगाहन करता है, अतः वह जीव और अजीव को
(बृभा ७२०-७२४) पृथक-पृथक रूप से विस्तार से नहीं जानता। इस अपरिज्ञान
उत्सारवाचक अपने शिष्यों को भी उत्सारकल्प से के कारण उसमें संयम का सद्भाव कैसे हो सकता है?
वाचना देते हैं। यह परम्परा आगे बढ़ती है तो सूत्र-अर्थ का क्या नदी में पानी है? क्या तुमने मृग आदि को देखा व्यवच्छेद हो जाता है। परम्परा के प्रसंग में घंटाशृगाल का है? प्यासे और शिकारी व्यक्तियों द्वारा ये प्रश्न पूछे जाने पर
शकारा व्याक्तया द्वारा य प्रश्न पूछ जान पर दृष्टांत ज्ञातव्य हैवह असत्य के भय से कह देता है-पानी है, मृग इधर गए एक इक्षुवाटक था। उसमें सियार प्रवेश कर इक्षु खा हैं। वह नहीं जानता कि पापकारिणी सत्यभाषा भी नहीं जाते थे। स्वामी ने वाटक के चारों ओर खाई खुदवा दी। एक बोलनी चाहिए।
बार एक सियार उस खाई में गिर पडा। स्वामी ने उसे अपवाद विधि से अनभिज्ञ होने के कारण वह पकडा। उसकी पंछ और कान काट दिये. शरीर पर चीते की करण (चारित्र) में विपर्यास करता है, जैसे ग्लान आदि आगाढ खाल मढ़कर गले में घंटा बांध दिया। वह भयभीत होकर कारण में प्रतिसेवना नहीं करता, अनागाढ में शीघ्र प्रतिसेवना वहां से दौड़ा। अन्य सियारों ने देखा और उसे विचित्र प्राणी कर लेता है। यह संयम विराधना है।
समझ कर वे सब भयभीत होकर दौड़ने लगे। उन्हें भागते ० योगविराधना-उत्सारकल्पिक शिष्य सोचते हैं - "गुरु ने देख तरक्षों ने कारण पूछा। शृगालों ने कहा-कोई अपूर्व प्राणी
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