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आगम विषय कोश - २
उत्सारकल्प - सूत्र और अर्थ के क्रम का अतिक्रमणकर अध्ययन-अध्यापन करना ।
१. उत्सारकल्प धूमकेतु सदृश २. सूत्रार्थ के क्रमशः अध्ययन के
गुण
* उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध क्यों ? ३. उत्सारण के दोष : उत्सारवाचक दृष्टांत • प्रवचन आदि का विच्छेद : घंटाशृगाल दृष्टांत ४. उत्सारकल्प के हेतु : ढंढणमुनि आदि दृष्टांत ५. उत्सारकल्पकारक की अर्हता
६. दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों ?
७. उत्सारकल्प-योग्य के
गुण
८. उत्सारण के विकल्प और प्रायश्चित्त ९. आर्य-अनार्य उत्सारकल्पी
१०. उत्सारकाल : अकाल वर्जन नहीं
११. वाचनापरिमाण: ओज-अनोज उद्देशक
द्र वाचना
११७
* उद्देश समुद्देश अनुज्ञा
१२. योगवहन एवं आहार १३. अव्याक्षेप : भिक्षाटन आदि द्वारा वैयावृत्त्य १. उत्सारकल्प धूमकेतु सदृश
सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूमकेतुकल्पमुत्सारकल्पम् । (बृभा ७२३ की वृ)
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द्र श्रुतज्ञान
सूत्र और अर्थ का परिपाटिवाचना ( क्रमश: वाचना ) से मुक्त होकर अविधि अथवा अक्रम-व्युत्क्रम से अध्ययनअध्यापन करना उत्सारकल्प है। यह समग्र श्रुतधर्म के लिए धूमकेतु के समान विनाशकारी है। २. सूत्रार्थ के क्रमशः अध्ययन के गुण
आणा विकोणा बुज्झणा य उवओग निज्जरा गहणं । गुरुवास जोग सुस्सूसणा य कमसो अहिज्र्ज्जते ॥ (बृभा ७२७) जो सूत्र का क्रमशः अध्ययन-अध्यापन करता है, उसके आठ गुण प्रकट होते हैं
० आज्ञा - तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना ।
० विकोपना - योग- उद्वहन विधि तथा गच्छ - सामाचारी में शिष्यों की निपुणता ।
उत्सारकल्प
० बोध - जीव- अजीव आदि तत्त्वों का अवबोध । उपयोग-प्रबुद्ध
होने पर श्रुत में सदा उपयोग 1
० निर्जरा - श्रुत में निरन्तर उपयुक्त रहने से महान् निर्जरा । • ग्रहण - नित्य उपयुक्त रहने पर सूत्र - अर्थ को शीघ्र ही ग्रहण करने की क्षमता ।
० गुरुवास - योग - गुरुकुल में रहने के कारण सूत्र और अर्थ के अध्ययन के अवसर की प्राप्ति तथा योगों की विधिवत्
आराधना ।
शुश्रूषा - आचार्य आदि के प्रति विनय-वैयावृत्त्य आदि करने के अवसर की प्राप्ति ।
उत्सारकल्पी सूत्र और अर्थ का क्रमशः अध्ययन नहीं करता, अतः उसके द्वारा ये सारे गुण आराधित नहीं होते। ३. उत्सारण के दोष : उत्सारवाचक दृष्टांत आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा संजमे य जोगे य । अप्पा परो पवयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता ॥ पुव्वि मलिया उस्सारवायए आगए पडिमिलंति । पडिलेह पुग्गलिंदिय, बहुजण ओभावणा तित्थे ॥ जीवाजीवेन मुइ, अलियभया साहए दग-मिताई । करणे अ विवच्चासं, करेड़ आगाढऽणागाढे ॥ तुरियं नाहिज्जंते, नेव चिरं जोगजंतिता होंति । लद्धो महंतसद्दो, त्ति केइ पासाई गेण्हंति ॥ कमजोगं न वि जाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि | (बृभा ७१६-७२०)
उत्सारकल्पी भगवान् की आज्ञा की सम्यक् आराधना नहीं करता। आचार्य को उत्सारकल्प करते देख अन्य आचार्य भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। शिष्य तथा प्रतीच्छक भी प्रतिस्पर्धा से उत्सारकल्पी हो जाते हैं। इससे अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है। नया शिष्य मिथ्यात्व को प्राप्त सकता है। संयम और योग-विषयक विराधना हो सकती है। उत्सारक आचार्य द्वारा आत्मा, शिष्य, प्रवचन तथा षड्जीवनिकाय परित्यक्त हो जाते हैं अर्थात् उनका सम्यक् अनुशीलनआराधन नहीं होता।
मिथ्यात्व प्राप्ति - एक बार नगर में बहुश्रुत पूर्वधर आचार्य
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