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आगम विषय कोश-२
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आलोचना
मैंने इतने अपराध किये हैं, इतनी बार अपराध किए हैं- सोधीकरणा दिट्ठा गुणसिलमादीसु जाहि साधूणं। ऐसा उच्चारण कर अर्हत् और सिद्धों की साक्षी से आलोचना, तो देंति विसोधीओ पच्चुप्पण्णा व पुच्छंति॥ प्रतिक्रमण, निंदा, गर्दा, व्यावर्तन और विशोधन करे, पुन: उस
__ (व्यभा ९७५, ९७६) दोष का सेवन न करने के लिए अभ्युत्थित/ संकल्पित होकर
भरुकच्छ के कोरंटक उद्यान में अर्हत् सुव्रतस्वामी तथा यथायोग्य तपःकर्म प्रायश्चित्त स्वीकार करे।
राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग में स्थित गुणशिलक आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छबहिया जो।
नाम के चैत्य में भगवान् महावीर अनेक बार समवसृत हुए। वोच्चत्थे चउलहुगा, अगीयत्थे होंति चउगुरुगा॥
वहां अर्हतों तथा गणधरों ने अनेक बार अनेक साधुओं को (व्यभा ९६५)
प्रायश्चित्त दिया, जिसे वहां स्थित देवता ने देखा-सुना। अतः प्रतिसेवना होने पर साधु को अपने गच्छ में आचार्य के
कोरंटक, गुणशिलक आदि उद्यानों में जाकर तेले का अनुष्ठान पास और उनके अभाव में क्रमश: उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, कर सम्यक्त्वभावित देवता का आह्वान कर उसके समक्ष गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए।
आलोचना की जाती है और वह देवता यथार्ह प्रायश्चित्त देता अपने गच्छ में इन पांचों के न होने पर अन्य सांभाजिक है। यदि पर्व देव का च्यवन हो गया हो और उसके स्थान पर गच्छ में जाकर आचार्य आदि के क्रम से आलोचना करनी
दूसरा देव उत्पन्न हो गया हो तो उसको आह्वान करने पर वह चाहिए। क्रम का उल्लंघन करने पर चतर्लघ और अगीतार्थ के
कहता हैपास आलोचना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है।
'मैं महाविदेह में तीर्थंकर को पूछकर आता हूं।' वह १३. पार्श्वस्थ आदि के पास आलोचना
आलोचक से अनुज्ञा लेकर, महाविदेह में जाकर, तीर्थंकर असतीय लिंगकरणं, सामाइयइत्तरं च कितिकम्म।" से पूछकर उसे प्रायश्चित्त देता है। उसके अभाव में पूर्व दिशा लिंगकरणं निसेज्जा कितिकम्ममणिच्छतो पणामो य। की ओर अभिमुख होकर अर्हत् और सिद्ध की साक्षी से एमेव देवयाए नवरं सामाइयं मोत्तुं॥ आलोचना कर स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करे। इस सूत्रोक्त
(व्यभा ९७०, ९७१) विधि से प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला शुद्ध ही है। जिसके समक्ष आलोचना करनी है, उसका पहले १५.साधु-साध्वी की आलोचना विधि: चतुष्कर्णा---परिषद् अभ्युत्थान-कृतिकर्म करना चाहिए। यदि पार्श्वस्थ, पश्चात्- आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जितो गुरुसगासे। कृत आदि ऐसा न चाहें तो उनके लिए निषद्या-रचना कर और
एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए॥ उन्हें प्रणाम कर आलोचना करनी चाहिए।
विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेज्जा वा। पश्चात्कृत (उत्प्रव्रजित) को इत्वरिक सामायिक व्रत
एस सपक्खे परपक्खे मोत्तु छण्णं निसिज्ज च॥ और रजोहरण आदि लिंग देकर, उसकी निषद्या कर कृतिकर्म
आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जिया उ गणिणीए। वंदन करना चाहिए। कृतिकर्म की अनिच्छा प्रकट करने पर एगंतमणावाए, एगा एगाएँ निस्साए। वचन और काया से प्रणाममात्र कर आलोचना करनी चाहिए। आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए।
इसी प्रकार सम्यक्त्व भावित देवता के पास आलोचना अब्बितियथेरगुरुणो, सबिईया भिक्खुणी निहुया॥ करे। व्रतार्ह नहीं होने से उसमें सामायिक का आरोपण नहीं नाण-दंसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया। किया जाता और लिंग समर्पण भी नहीं किया जाता।
इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया॥ १४. सम्यक्त्वी देव के पास आलोचना
आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। कोरंटगं जधा भावितट्ठमं पुच्छिऊण वा अन्नं। सब्बितियतरुणगुरुणो, सब्बिइया भिक्खुणी निहुया॥ असति अरिहंत-सिद्धे जाणंतो सुद्धो जा चेव॥
(बृभा ३९२-३९७)
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