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आगम विषय कोश-२
१०९
आशातना
किसी मुनि का भोजन से भरा पात्र कोई चुराकर ले . लाघव-भारहीन की भांति हल्कापन। जाते हैं तो उस मुनि के होने वाले कर्मबंध के विषय में ० आह्लाद की उत्पत्ति-अतिचारजन्य ताप का शमन। भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं
० आत्म-पर-निवृत्ति-स्वयं की और उसे देख दूसरों की भी ० जब तक चोरों के सातवें कुल तक अनुवर्तन होता है। दोषों से निवृत्ति। ० जब तक उनका नाम-गोत्र रहता है।
० आर्जव-अपने दोषों के प्रकटीकरण से ऋजुता का विकास। ० जब तक उनकी अस्थियां रहती हैं।
० शोधि-मलिन चारित्र की प्रायश्चित्त-जल द्वारा निर्मलता। ० उसके आयुष्यकाल तक।
० दुष्करकरण-प्रबल मुमुक्षा एवं वीर्योल्लास से ही आलोचना ० जब तक उस आहार के भक्षण से मांसोपचय होता है। संभव है। प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है। दष्कर है आलोचना। ० जब तक वह भुक्त भोजन पच नहीं जाता।
० विनय-चारित्रविनय का सम्यक् सम्पादन। आचार्य कहते हैं-ये सब अनादेश हैं। सैद्धान्तिक ० निःशल्यता-माया आदि शल्यों का उद्धरण। मत यह है कि जिस मुनि का पात्र चुराया गया है, जब तक * आलोचना की परिभाषा आदि द्र श्रीआको १ आलोचना वह मुनि उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं कर लेता, आशातना-सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में तब तक उसके कर्मबंध होता रहता है।
बाधा डालने वाली अथवा न्यूनता उत्पन्न २७. किस आलोचना से शुद्धि
करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति। आलोयण त्तिय पुणो, जा एसाऽकुंचिया उभयतो वि। १. आशातना के प्रकार : द्रव्य, क्षेत्र आदि सच्चेव होति
सोही..."॥ २. आशातना से सम्यक्त्व आदि का नाश
(व्यभा ५८५) ३. गुरु की आशातना से ज्ञान आदि की आराधना नहीं जो आलोचना उभयतः-संकल्पकाल और आलोचना
| ० आशातना कब नहीं?
४. आसायणा के प्रकार काल में मायारहित होती है, उसी से वास्तविक शुद्धि होती है।
० मिथ्याप्रतिपत्ति आशातना ० मायापूर्ण आलोचना से प्रायश्चित्तवृद्धि
० लाभ आसादना : इष्ट-अनिष्ट द्रव्य आदि जे भिक्खू दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता
१. आशातना के प्रकार : द्रव्य, क्षेत्र आदि आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स तेमासियं॥ (व्य १/२)
दव्वे खेत्ते काले, भावे आसायणा मुणेयव्वा।"
दव्वे आहारादिसु, खेत्ते गमणादिएसु णायव्वा। ___ जो भिक्षु द्वैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर
कालम्मि विवच्चासे, मिच्छा पडिवज्जणा भावे॥ ऋजुता से आलोचना करता है, उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त और
काले उ सुयमाणे, अपडिसुणेतस्स होति आसयणा। यदि वह मायापूर्वक आलोचना करता है तो उसे त्रैमासिक
मिच्छादिफरुसभावे, अंतरभासा य कहणा य॥ प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, माया का एक मास अधिक प्राप्त
जंऽगारणगारत्ते, सुतं तु सहसंमुतं य जं किं चि। होता है।
तं गुरु अण्णहकहणे, णेवमिदं मिच्छपडिवत्ती॥ २८. आलोचना से निष्पन्न गुण
(निभा २६४१-२६४३, २६४९) लहुयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अजवं सोही। आशातना के चार प्रकार हैंदुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा॥ १. द्रव्य आशातना-आहार, वस्त्र आदि का उपभोग करना।
(व्यभा ३१७) २. क्षेत्र आशातना-गुरु के आगे-पीछे या पार्श्व में सटकर आलोचना (शोधि) से आठ गुण प्रकट होते हैं- चलना, बैठना या खड़े रहना।
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