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आलोचना
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वाचना लेते समय वाचनाचार्य की पंचक परिहानि से क्रिया की हो, शुद्ध आहार आदि न मिलने पर अशुद्ध लाकर दिया हो तो आलोचना करे ।
दर्शन - चारित्र केअतिचारों की आलोचना - ज्ञान की भांति दर्शनश्रद्धा में भी दर्शन के निमित्त किसी अतिचार का सेवन किया हो, चारित्र में एषणा संबंधी, सदोष शय्यासंबंधी तथा स्त्रीसंबंधी किसी दोष का सेवन किया हो तो उसकी आलोचना करे। ० पंचकपरिहानि और आलोचना
मसम्प्राप्तः ।
पञ्चकपरिहानियतना नाम स शुद्धालाभे पञ्चकप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनाद् उत्पादयति । तदसंभवे दशकप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनाद् एवं तावत् यावद् चतुर्गुरुक(व्यभा १५७५ की वृ) पंचकपरिहानि यतना से तात्पर्य है - किसी कारणवश शुद्ध आहार- पानी, औषध आदि का लाभ न मिलने पर पांच दिनों जितने प्रायश्चित्त स्थान का सेवन कर उनका उत्पादन किया हो। वैसे भी संभव न होने पर दस दिनों का यावत् चार गुरुमास जितने प्रायश्चित्त स्थान का सेवन करके उनका उत्पादन किया हो, उसकी आलोचना करे २४. शल्योद्धरण आवश्यक : अश्ववत् प्रस्थान
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तं खमं खुपमादो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं । आयरियपादमूले, गंतूणं उद्धरे सल्लं ॥ अहयं च सावराही, आसो इव पत्थिओ गुरुसगासं । सिग्घुज्जुगती आसो, अणुवत्तति सारहिं ण अत्ताणं । इय संजममणुवत्तति, वइयाइ अवंकिओ साहू ॥ (निभा ६३०९-६३११ )
साधक के लिए सशल्य रहना, अतिचारशल्य को निकालने में प्रमाद करना मुहूर्त्तभर के लिए भी क्षम्य नहीं है। उसे आचार्यचरणों में पहुंचकर शीघ्र शल्योद्धरण करना चाहिए।
मुनि अपने आप को अपराधी जानकर दोष - विशोधन हेतु गुरु के पास जाने के लिए अश्ववत् प्रस्थान करता है।
आकीर्ण (विनीत) अश्व अपने सारथि के अभिप्राय का अनुवर्तन करता हुआ शीघ्र या मंद गति से ऋजु चलता है, स्वेच्छा से चारा-पानी भी ग्रहण नहीं करता। इसी प्रकार साधु संयम का अनुवर्तन करता हुआ सीधे पथ से गुरु के पास जाता है, व्रजिका आदि स्थानों में प्रतिबद्ध नहीं होता ।
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आगम विषय कोश - २
० व्याध - दृष्टांत
कंटगमादिपविट्ठे, नोद्धरति सयं न भोइए कहति । कमढीभूत वणगते, आगलणं खोभिता मरणं ॥ बितिओ समुद्धरती, अणुद्धिए भोइयाय णीहरति । परिमद्दण दंतमलादि पूरण धाडण पलातो व्व ॥ (व्यभा ६६२, ६६३)
एक व्याध नंगे पैर वन में गया। उसके पैर कांटों आदि से विद्ध हो गये । उसने न स्वयं उन कांटों को निकाला, न अपनी भार्या से निकलवाया। वह एक बार फिर वन में गया। एक हाथी ने उसका पीछा किया। व्याध दौड़ने लगा किन्तु पूर्वप्रविष्ट कांटे और अधिक गहरे मांस तक चले गये। उसकी गति श्लथ और कछुए की तरह मंद हो गई । वह छिन्नमूल वृक्ष की भांति गिर पड़ा, मूर्च्छित हो गया, हाथी ने उसे रौंदकर मार डाला।
दूसरा व्याध भी नंगे पैर वन में गया, कांटे चुभे । स्वयं ने कांटे निकाले, शेष अनुद्धृत कांटों को अपनी पत्नी से निकलवाया। पैर के विद्ध स्थानों का अंगुष्ठ आदि से परिमर्दन किया, दंतमल, कर्णमल (किट्टी) से विद्ध छिद्रों को भरा । स्वस्थ होकर वन में गया। हाथी ने उसे देखा, वह भागकर सुरक्षित घर लौट आया।
अतिचार रूपी शल्यों की उपेक्षा करने वाले आचार्य और शिष्य दुःखों को प्राप्त होते हैं और आलोचना- प्रायश्चित्त द्वारा शल्योद्धरण करने वाले सुखों के आभागी होते हैं । २५. सशल्यमरण से अनंत संसार
मरिडं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि । सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारम्मि ओतिण्णा ॥ (व्यभा १०२२) जो जीव इस अत्यंत गहन संसार अटवी में शल्ययुक्त ( आलोचना किये बिना ही ) मृत्यु को प्राप्त करते हैं, वे महागहन संसार रूपी अटवी में अवतीर्ण होकर अनंत काल तक भवभ्रमण करते हैं ।
२६. आलोचना न हो, तब तक कर्मबंध
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तं तेण छूढं तहिगं च पत्ता, तेणा । आसत्तणामट्ठित आउ मंसा, णजिण्णऽणादेस ण जा विउट्टे || (बृभा ३६०६)
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