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आलोचना
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आगम विषय कोश-२
यदि आलोचक सहजता से अपने अपराध को भूल अवश्यकरणीय संयमयोगों में स्खलना होने पर छद्मस्थ गया है, उसमें माया नहीं है तो प्रत्यक्षज्ञानी उसे याद दिला भिक्षु को गुरु के पास आलोचना एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए। देते हैं। मायावी को उस दोष की स्मृति नहीं दिलाते।
अवराहविहारपगासणा य दोण्णि व भवंति गीतत्थे। यदि आगम और आलोचना में विषमता होती है
अवराहपयं मोत्तुं पगासणं होतऽगीतत्थे॥ जिस रूप में उसने आलोचना की है, आगमज्ञानी ने उसके
(व्यभा २१९८) अतिचारों को वैसा नहीं देखा, न्यूनाधिक देखा है तो
गीतार्थ के पास अपराध-आलोचना और विहारआगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते।
आलोचना-दोनों प्रकार की आलोचना की जाती है। ० श्रुतव्यवहारी : तीन बार आलोचना श्रवण
अगीतार्थ के पास विहार-आलोचना की जा सकती है, कप्पपकप्पी तु सुते, आलोयाति ते उ तिक्खुत्तो।
अपराध-आलोचना नहीं। सरिसत्थमपलिकुंची, विसरिसंपरिणामतो कुंची॥ आगारेहि सरेहि य, पुव्वावर-वाहताहि य गिराहि। १२. आलोचनाह का क्रम नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाणी ववहरंति॥
भिक्खूय अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता इच्छेज्जा दशाकप्पव्यवहारादिसूत्रार्थधराः..महाकल्पश्रुत
आलोएत्तए, जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा, महानिशीथनियुक्तिपीठिकाधराश्च... श्रुतव्यवहारिणः
तेसंतियं आलोएज्जा"नो चेव अप्पणो आयरिय-उवज्झाए प्रोच्यन्ते।
(व्यभा ३२०, ३२३ वृ)
पासेज्जा, जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं जो दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार और निशीथसूत्र को
बब्भागमं"अण्णसंभोइयं साहम्मियं बहुस्सुयं बब्भागमं"
सारूवियं बहुस्सुयं बब्भागमं "समणोवासगं पच्छाकडं अर्थसहित धारण करने वाले हैं तथा महाकल्पश्रुत-महानिशीथनिर्यक्ति-पीठिकाधर हैं, वे तव्यवहारी कहलाते हैं।
बहुस्सुयं बब्भागम"सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा, कल्प-प्रकल्पधारी श्रुतव्यवहारी तीन बार आलोचना
तेसंतिए आलोएज्जा बहिया गामस्स वा नगरस्सवा
"पाईणाभिमुहे वा उदीणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सुनते हैं और जान लेते हैं कि तीनों बार सदृश आलोचना
सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वएज्जा-एवइया मे करने वाला अमायावी है, विसदृश आलोचक मायावी है।
अवराहा, एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो, अरहंताणं सिद्धाणं श्रुतव्यवहारी आलोचक के आकार (शरीरगत भाव विशेष), अस्पष्ट-क्षुब्ध स्वर और पूर्वापर विसंवादिनी वाणी
अंतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा के आधार पर उसकी माया को जान लेते हैं।
विउद्देज्जा विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा, अहारिहं अमायावी आलोचक के सभी आकार संविग्न भावों
तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जासि। (व्य १/३३) को संदर्शित करते हैं। उसका स्वर स्पष्ट और अक्षुब्ध तथा भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का आचरण कर आलोचना वाणी पूर्वापरसंवादिनी होती है।
करना चाहे, जहां भी अपने आचार्य-उपाध्याय को देखे, ११. आलोचना : गीतार्थ या अगीतार्थ के पास उनके पास आलोचना करे।
..."आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि॥ आचार्य-उपाध्याय दृष्टिगत न हों, तो बहुश्रुत गीतार्थ करणिज्जेसु उ जोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो। साम्भोजिक साधर्मिक के पास, उसके अभाव में क्रमश: आलोयणा व पच्छित्तं गुरूगं अंतिए सिया॥ बहुश्रुत-गीतार्थ अन्य सांभोजिक, सारूपिक और पश्चात्कृत
(व्यभा ५५, ५६) श्रमणोपासक के पास आलोचना करे। उसके अभाव में सम्यक् आलोचना निश्चित रूप से गीतार्थ के पास करनी भावित चैत्य देखे तो वहां आलोचना करे। उसके अभाव में चाहिए। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति गांव या नगर के बाहर पूर्व या उत्तर की ओर अभिमुख हो हो तो वह अगीतार्थ के पास भी की जा सकती है।
करबद्ध मस्तक पर अंजलि रखकर इस प्रकार बोले
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