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आलोचना
आगम विषय कोश-२
इन आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना श्रवण दृढ़मित्र वहां आकर बोला-ये दांत मेरे अधिकार में हैं। यह के योग्य होता है।
मेरा कर्मकर है। राजपुरुषों ने वनचर को छोड़ दिया और • अपरिस्रावी : दृढमित्र दृष्टांत
दृढ़मित्र को राजा के पास ले गए। राजा ने पूछा-ये दांत ...."जध घोसणं पुहविपालो। किसके हैं? दृढमित्र बोला-मेरे। इतने में ही 'दृढ़मित्र को दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं॥ राजपुरुषों ने पकड़ लिया है' यह सुनकर धनमित्र वहां आ
(व्यभा ५१७) पहुंचा। उसने राजा से कहा-ये दांत मेरे अधिकार में हैं। दंतपुर नगर में दंतवक्त्र राजा राज्य करता था। उसकी
__ आप मुझे दंड दें, मेरे शरीर का निग्रह करें। दृढ़मित्र बोला
ये दांत मेरे हैं. मेरा निग्रह करें। इसे मक्त करदें। इस प्रकार वे रानी का नाम था सत्यवती। एक बार उसे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं सम्पूर्ण दंतमय प्रासाद में क्रीड़ा करूं। उसने अपना
दोनों अपने आपको दोषी ठहराने लगे। तब राजा ने कहा
द दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय प्रासाद
तुम दोनों निरपराधी हो। मुझे यथार्थ बात बताओ। उन्होंने बनवाने की आज्ञा दी और उसे शीघ्र ही संपन्न करने को दांतों की पूरी बात बताई। राजा बहुत संतुष्ट हुआ और दोनों कहा। अमात्य ने नगर में घोषणा कराई-जो कोई दसरों के को मुक्त कर दिया। दांत खरीदेगा अथवा अपने घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, ९. आलोचनाह का व्यवहार : व्याध और गौ दृष्टांत उसे शूली की सजा भुगतनी होगी।
पलिउंचण चउभंगो, वाहे गोणी य पढमतो सुद्धो। उस नगर में धनमित्र नाम का सार्थवाह रहता था। तं चेव य मच्छरिते, सहसा पलिउंचमाणे उ॥ उसके दो पत्नियां थीं। एक का नाम था धनश्री और दूसरी खरंटणभीतो रुट्ठो, सक्कारं देति ततियाए सेस।" का नाम था पद्मश्री। एक बार दोनों में कलह उत्पन्न हुआ, अपलिउंचिय पलिउंचियम्मि यचउरो हवंति भंगा उ." पद्मश्री ने धनश्री से कहा-तू क्या गर्व करती है ? क्या तूने पढम-ततिएसु पूया, खिंसा इतरेसु पिसिय-पय"" महारानी सत्यवती की भांति अपने लिए दंतमय प्रासाद बनवा
(व्यभा ५८०-५८३) लिया है? यह बात धनश्री को चुभ गई। उसने हठ पकड़ प्रतिकुंचन (माया) की अपेक्षा से आलोचना के चार लिया कि यदि मेरे लिए दंतमय प्रासाद नहीं होता है तो मेरा भंग बनते हैंजीवन व्यर्थ है। अब उसने अपने पति धनमित्र से आलाप- ० संकल्पकाल में ऋजुता, आलोचनाकाल में ऋजुता संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र ने अपने मित्र दृढ़मित्र संकल्पकाल में ऋजता, आलोचनाकाल में माया से सारी बात कही। दृढ़मित्र बोला-मैं शीघ्र ही उसकी ० संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में ऋजुता इच्छा पूरी कर दूंगा। तब दृढ़मित्र वनचरों से मिलने वन में ० संकल्पकाल में माया, आलोचनाकाल में माया गया। साथ में कुछ उपहार भी लिए। वनचरों ने पूछा- इनमें प्रथम भंग शुद्ध है। आपके लिए हम क्या लाएं? क्या भेंट करें ? दृढ़मित्र बोला- व्याध दृष्टांत-एक व्याध यह सोचकर चला कि मुझे सारा मुझे दांत ला दो। वनचरों ने दांतों को अनेक घास के पूलों में मांस स्वामी को देना है। घर पहुंचते ही स्वामी ने कहाछिपाकर उनसे एक शकट भर दिया। दृढ़मित्र तथा वनचर आओ, बैठो, स्वागत है, सुस्वागत है। व्याध ने तुष्ट होकर उस शकट को लेकर चले। नगरद्वार में प्रवेश करते ही एक सारा मांस दे दिया। बैल ने शकट से घास का पूला खींच लिया। उसमें छुपाए दूसरा व्याध सारा मांस देने का निर्णय कर चला किंतु हए दांत नीचे आ गिरे। 'यह चोर है'-ऐसा सोचकर स्वामी की डांट-फटकार से रुष्ट हो उसने स्वामी को सारा राजपुरुषों ने वनचर को पकड़ लिया और पूछा-ये दांत मांस नहीं दिया। किसके अधिकार में हैं ? वनचर मौन रहा। इतने में ही इसी प्रकार एक आलोचक पूर्ण आलोचना के लिए
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