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आलोचना
आगम विषय कोश-२
सम्पदा)
त्रसकाय-इन्द्रियवृद्धि के क्रम से आलोचना करे। द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय प्राणी का संघटन-परितापन आदि किया हो।
दूसरे महाव्रत में दुर्भाषित अथवा हास्य, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय से मृषा कहा हो।
तीसरे महाव्रत में अयाचित का ग्रहण किया हो।
चौथे महाव्रत में स्त्री का संघट्टन, पूर्वक्रीडित का अनस्मरण, स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन किया हो।
__पांचवें महाव्रत में उपकरणों में मूर्छा तथा अतिरिक्त उपधि का ग्रहण-उपभोग किया हो।
___ छठे व्रत में आहार के लेप से युक्त पात्र आदि, औषधि अथवा सौंठ आदि रात्री में रखे हों। उत्तरगुण विषयक आलोचना-गुप्ति और समिति के विपरीत आचरण किया हो-कदाचित् अगुप्त रहा हो, कदाचित् असमित अवस्था में अनेषणीय भक्त-पान लिया हो.... बल और वीर्य-शारीरिक शक्ति और आंतरिक शक्ति होने पर भी तप-उपधान में उद्यम न किया हो, शक्ति का संगोपन किया हो तो आलोचना करे। यह विहार आलोचना है। ६. उपसम्पदा और अपराध आलोचना
आलोयण तह चेव य, मूलुत्तर नवरि विगडिते मंतु।" एमेव य अवराहे
(व्यभा ३०२, ३०३) उपसम्पदा आलोचना में भी विहार आलोचना की तरह पहले मूलगुणों के अतिचारों की, फिर उत्तरगुणों के अतिचारों की आलोचना की जाती है। आलोचना के पश्चात् उपसम्पद्यमान मुनि साधुओं को वंदना कर निवेदन करता है-आपने मुझे आलोचना दी, अब आप मेरी सारणावारणा करें। वे मुनि भी कहते हैं-आप भी हमारी सारणावारणा करना।
अपराध आलोचना के विषय में भी यही विधि प्रयोजनीय है।
एगमणेगा दिवसेसु, होति ओघे य पदविभागे य.. दिव-रातो उवसंपय, अवराधे दिवसतो पसत्थम्मि।...
(व्यभा २४५, २४६) उपसंपदालोचना और अपराधालोचना के दो-दो प्रकार हैं-ओघ और पदविभाग। ओघआलोचना एक दैवसिकी
और विभागआलोचना एक दैवसिकी तथा अनेक दैवसिकी होती है। उपसंपद्यमान ज्ञात और अज्ञात दोनों प्रकार के होते हैं। अज्ञात की परीक्षा की जाती है। (परीक्षाविधि द्र उपसम्पदा)
उपसंपदालोचना प्रशस्त अथवा अप्रशस्त दिन या रात में दी जा सकती है। अपराधालोचना प्रशस्त दिन में ही दी जाती है। ७. आलोचनाकाल में प्रशस्त-अप्रशस्त द्रव्य."
दव्वादिचतुरभिग्गह, पसत्थमपसत्थए दुहेक्केक्के। अपसत्थे वजे उं, पसत्थएहिं तु आलोए। भग्गघरे कुड्डेसु य, रासीसु य जे दुमा य अमणुण्णा । तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खे दिसा तिण्णि ॥ अमणुण्णधन्नरासी, अमणुण्णदुमा य होंति दव्वम्मि। भग्गघर-रुद्द-ऊसर, पवाय दड्डादि खेत्तम्मि॥ निप्पत्त कंटइल्ले, विज्जुहते खार-कडुग-दड्डे य। अय-तउय-तंब-सीसग, दव्वे धन्ना य अमणुण्णा॥ पडिकुटेल्लगदिवसे, वज्जेज्जा अट्टमिं च नवमिं च। छटुिं च चउत्थिं च, बारसिं दोण्हं पि पक्खाणं॥ संझागतं रविगतं, विड्डेरं संगहं विलंबिं च। राहुहतं गहभिन्नं, व वजए सत्तनक्खत्ते॥ तप्पडिवक्खे खेत्ते, उच्छुवणे सालि-चेइयघरे वा। गंभीरसाणुणाए, पयाहिणावत्तउदए य॥ उत्तदिणसेसकाले, उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि। पुव्वदिसि उत्तरा वा, चरंतिया..." ॥
(व्यभा ३०५-३१०, ३१३, ३१४) अपराधालोचना देते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावइन चारों को देखकर तथा दिशा का अभिग्रहण कर आलोचना देनी चाहिए-इन पांचों के दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त द्रव्य आदि के सद्भाव में आलोचना करनी चाहिए, अप्रशस्त में नहीं। ० अप्रशस्त द्रव्य-अमनोज्ञ धान्यराशि-तिल, माष आदि।
अमनोज्ञ द्रुमराशि-पत्ररहित वृक्ष (करीर आदि), कंटीले वृक्ष (बबूल आदि), विद्युतहत वृक्ष, क्षाररस (मोरड आदि), कटुकरस (रोहिणी, कुटज, नीम आदि), दवदग्ध वृक्ष । ० अमनोज्ञ धातु-लोहा, जस्ता, तांबा, सीसा आदि।
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