________________
आगम विषय कोश - २
० अप्रशस्त क्षेत्र - भग्नगृह, भित्ति के अवशेष, रुद्रगृह, ऊषर भूमि, प्रपात, दग्ध भूमि आदि ।
९९
• अप्रशस्त काल - शुक्ल और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, छठ, अष्टमी, नवमी और द्वादशी – ये तिथियां शुभ कार्यों में स्वभावतः वर्जनीय हैं। सन्ध्यागत आदि नक्षत्र अप्रशस्त हैं। ० अप्रशस्त भाव -- नीच स्थान ( सप्तम स्थान) गत ग्रह ।
अप्रशस्त सात नक्षत्र वर्जनीय हैं - संध्यागत, रविगत, विद्वारिक (विड्डेर), संग्रह, विलम्बी, राहुहत और ग्रहभिन्न । ० अप्रशस्त दिशा - याम्या आदि ।
• प्रशस्त द्रव्य - धान्य राशि- शालि आदि ।
धातु राशि- मणि, स्वर्ण, मौक्तिक आदि की राशि । ० प्रशस्त क्षेत्र - इक्षुवन, पत्र-पुष्प फलोपेत उद्यान, शालिवन, चैत्यगृह, गंभीरस्थान (भग्नत्व आदि दोषों से रहित तथा जिसका मध्यभाग प्रायः अलक्षित - शेष जनों द्वारा अदृष्ट रहता है), सानुनाद स्थान ( जहां शब्दोच्चारण करने पर प्रतिध्वनि उठती है), प्रदक्षिणावर्त्त जल ( वह नदी या सरोवर, जिसमें जल का आवर्त - मोड़ दक्षिण की ओर हो), पद्मसरोवर ।
० प्रशस्त काल - द्वितीया, तृतीया आदि प्रशस्त तिथियां (व्यतिपात आदि दोष वर्जित), प्रशस्त करण और मुहूर्त्त । द्र काल ० प्रशस्त दिशा- पूर्व दिशा, उत्तर दिशा और चरंती दिशा । ० चरंती दिशा
० प्रशस्त भाव - उच्च स्थानगत ग्रह |
......चरंतिया
जाव
नववी ॥ चरंती नाम यस्यां भगवानर्हन् विहरति सामान्यतः केवलज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी त्रयोदशपूर्वी यावन्नवपूर्वी, यदि वा यो यस्मिन् युगे प्रधान आचार्यः स वा यया विहरति । (व्यभा ३१४ वृ)
चरन्ती दिशा वह है जिस दिशा में तीर्थंकर, केवली, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, त्रयोदशपूर्वी यावत् नवपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण करते हैं । ८. आलोचनाई की अर्हताएं
गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा । चिरदिक्खिया य वुड्ढा, जतीण आलोयणा जोग्गा ॥ (व्यभा २३७८)
Jain Education International
आलोचना
आलोचनार्ह (आलोचना श्रवण योग्य) की अर्हता
o
गीतार्थ - सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ में निष्णात ।
०
० कृतकरण-जो आलोचना में सहायक रह चुके हैं। प्रौढ़ - बिना हिचकिचाहट के प्रायश्चित्त देने में समर्थ । ० परिणामी - न अपरिणामक, न अतिपरिणामक । ० गंभीर - आलोचक के महान् दोषों को सुनकर भी जो अपरिस्रावी हैं (बात को पचाने में समर्थ हैं) । ० चिरदीक्षित - तीन वर्ष से अधिक दीक्षापर्याय वाले। • वृद्ध - श्रुत, पर्याय और वय से स्थविर ।
आलोयणारिहो खलु, निरावलावी उ जह उ दढमित्तो | अट्ठहि चेव गुणेहिं, इमेहि जुत्तो उ नायव्वो ॥ आयारवं आधारवं, ववहारोव्वीलए पकुव्वी य । निज्जवगऽवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वो । (व्यभा ५१९, ५२० )
आलोचनार्ह निश्चित रूप से दृढमित्र की भांति निरपापी होता है । वह आठ गुणों से युक्त होता है
१. आचारवान् - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पांच आचारों से युक्त ।
२. आधारवान् - आलोचक द्वारा आलोचित या आलोच्यमान समस्त अतिचारों का अवधारण करने में समर्थ ।
३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पांच व्यवहारों का ज्ञाता तथा इनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल
४. अपव्रीडक - आलोचक लज्जामुक्त हो निःसंकोच अपने दोषों को बता सके, विचित्र मधुर वचनों से वैसा साहस
उत्पन्न करने वाला ।
५. प्रकुर्वी ( प्रकारी ) - सम्यक् प्रायश्चित्त देकर आलोचक की विशोधि करने वाला ।
६. निर्यापक- आलोचक बड़े प्रायश्चित्त का भी निर्वहन कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला ।
७. अपायदर्शी - प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यक् वहन तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला। ८. अपरिस्रावी - आलोचक के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट न करने वाला ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org