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आगम विषय कोश-२
आर्यक्षेत्र
जिनप्रवचन में प्रतिपादित है। जो सब शल्यों को निकाल आरोपणा-प्रायश्चित्त का तीसरा प्रकार, एक दोष से फेंकता है, उसके क्लेश मिट जाते हैं और वही शद्ध होता है।
प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन जिसके भलीभांति आलोचना करने के परिणाम हैं
से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना। और जिसने गुरु की दिशा में प्रस्थान कर दिया है, वह यदि
द्र प्रायश्चित्त अन्तराल में ही बिना आलोचना किए कालधर्म को प्राप्त हो जाता है, फिर भी वह आराधक है (क्योंकि उसने शक्ति का आर्यक्षेत्र- श्रेष्ठ क्षेत्र । साधना के अनुकूल विहरण भूमि। गोपन नहीं करते हुए निश्छल प्रवृत्ति की है)।
अहिंसा में आस्था रखने वाले क्षेत्र। एवं होति विरोधो, आलोयणपरिणतो य सुद्धो य। | १. आर्य शब्द के निक्षेप एगंतेण पमाणं परिणामो वी न खलु अम्हं॥ २. आर्यक्षेत्र की सीमा : कालसापेक्ष
(व्यभा ९२२) ३. आर्यक्षेत्र : साढे पचीस जनपद ० सशल्यमरण से चरणनाश होता है।
४. आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरमहिमा : संयमपालन सुकर ० आलोचनापरिणामपरिणत तथा तथाविध प्रवृत्ति में संलग्न
५. अनार्यक्षेत्रगमन निषिद्ध मुनि आलोचना न कर सकने पर भी शुद्ध है।
० निषेध के हेतु : स्कन्दक दृष्टांत
० निषिद्ध क्षेत्रगमन के हेतु इन दोनों में परस्पर विरोध है-शिष्य के इस कथन
६. राजा संप्रति : अनार्यक्षेत्र आर्यक्षेत्र में परिवर्तित पर आचार्य कहते हैं-केवल परिणाम हमारे लिए एकांत रूप से प्रमाण नहीं है। जो अपनी शक्ति का गोपन कर यथाशक्ति १. आर्य शब्द के निक्षेप प्रवृत्ति नहीं करता, उसकी केवल परिणामपरिणति तत्त्वतः नाम ठवणा दविए, खेत्ते जाती कुले य कम्मे य। परिणाम ही नहीं है, परिणामाभास है।
भासारिय सिप्पारिय, णाणे तह दंसण चरित्ते। ४. आराधक : आलोचना हेतु समर्पित
अंबट्ठा य कलंदा, विदेहा विदका ति य। पडिसेवणाऽतियारे, जह वीसरिया कहिंचि होज्जाहि।। हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इब्भजातिओ॥ तेसु कह पट्टितव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं॥ उग्गा भोगा राइण्णा खत्तिया तह य णात कोरव्वा। जे मे जाणंति जिणा, अवराधा जेसु जेसु ठाणेसु। इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होंति नायव्वा॥ ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं॥
(बृभा ३२६३-३२६५) एवं आलोएंतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो। आर्य शब्द के बारह निक्षेप हैंआराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणारहितो॥ १. नाम आर्य – 'आर्य' नाम ।
(व्यभा ४३०८-४३१०) २. स्थापनार्य - आर्य की स्थापना। शिष्य ने पूछा-यदि प्रतिसेवनातिचार किसी कारण से ३. द्रव्यार्य - नमनशील तिनिश आदि वृक्ष । विस्मृत हो गए हों तो श्रमण उनका शल्योद्धरण कैसे करे? ४. क्षेत्रार्य - मगध आदि जनपद।
आचार्य ने कहा-वह सोचे कि जिन-जिन स्थानों में ५. जात्यार्य - अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक. हारित और जो-जो मेरे अपराध हैं, अर्हत् उन्हें जानते हैं। मैं उनकी तुंतुण-ये छह इभ्य-अभ्यर्चनीय जातियां। आलोचना के लिए सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। इस प्रकार ६. कुलार्य - उग्र, भोज, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और आलोचना करता हुआ भी वह आराधक है क्योंकि वह गौरव इक्ष्वाकु-इन छह कुलों में उत्पन्न। और माया से रहित तथा विशुद्ध परिणामधारा से संयुक्त है। ७. कार्य -- कर्म से आर्य ।
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