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आराधना
आगम विषय कोश-२
आतापना-कर्मनिर्जरा के लक्ष्य से सूर्य का ताप सहन जघन्य आराधना के उत्कृष्ट आठ भव। करना।
द्र कायक्लेश ___ * सेवार्तसंहननी उत्तम आराधक द्र श्रीआको १ आराधना आदेश-बहुश्रुत द्वारा आचीर्ण अथवा नयान्तर विकल्प। २. आलोचना में आराधना की नियमा
___द्र आगम
आलोइयपडिकंतस्स होति आराधना तु नियमेण। आधाकर्म-मन से साधु के निमित्त आरंभ-समारंभ
अणालोयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स ॥
कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ। का संकल्प कर आहार आदि निष्पन्न
अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तहवि भयणेवं॥ करना। द्र पिण्डैषणा
(व्यभा ४०५२, ४०५३) आभवद् व्यवहार-क्षेत्रस्थित तथा आगंतुक मुनियों
___ जो सम्यग् आलोचना कर पुनः उस अपराध को न का उस क्षेत्रगत सचित्त आदि के करने के लिए संकल्पित होता है, वह निश्चित आराधक लाभ का स्वामित्वविषयक होता है। व्यवहार-चिन्तन। द्र व्यवहार ____ आलोचना न करने पर आराधना की भजना है-कोई
आलोचक आलोचनापरिणामपरिणत है, आलोचनार्ह गुरु के आराधना-लक्ष्यसिद्धि के लिए सम्यक् साधना करना।
पास जाने के लिए सम्प्रस्थित है, किन्तु बीच में ही कालधर्म १. आराधना के प्रकार और भवसीमा
को प्राप्त हो जाता है अथवा गुरु के पास पहुंच कर भी रोग के २. आलोचना में आराधना की नियमा
कारण बोल नहीं पाता है या आलोचनार्ह आचार्य कालगत हो ३. आलोचना परिणाम मात्र से आराधक
जाते हैं अथवा वे बोलने में अशक्त होते हैं तो इन स्थितियों में ४. आराधक : आलोचना हेतु समर्पित
आलोचना नहीं करने पर भी वह आराधक है। जो आलोचना* गुरु की आशातना से ज्ञान आराधना नहीं द्र आशातना परिणामपरिणत नहीं है, वह आराधक नहीं होता। * कल्पिका प्रतिसेवक आराधक द्र प्रतिसेवना
३. आलोचना परिणाममात्र से आराधक * कलहशमन करने वाला आराधक द्र अधिकरण * सम्यक् व्यवहारी आराधक
."ण विणज्जति वाघातो, कं वेलं होज्ज जीवस्स॥
द्र व्यवहार * प्रायोपगमन में द्विविध आराधना
तं न खमं खुपमातो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं। द्र अनशन
आयरियपादमले, गंतण समद्धरे सल्लं॥ * असारणा से संघविराधना
द्र आचार्य
न हुसुज्झती ससल्लो, जह भणियंसासणे जिणवराणं। १. आराधना के प्रकार और भवसीमा
उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झति जीवो धुतकिलेसो॥ आराहणा उ तिविधा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा उ। आलोयणापरिणतो, सम्मं संपट्टितो गुरुसगासं। एग दुग तिग जहन्न, दु तिगट्ठभवा उ उक्कोसा॥ जदि अंतरा उ कालं, करेति आराहओ सो उ॥ (व्यभा ३८८७)
(व्यभा २२८-२३०, २३३) आराधना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और किस क्षण मृत्यु आयेगी-यह ज्ञात नहीं है। (सशल्य जघन्य । इस त्रिविध आराधना का क्रमशः फल है-एक भव मरने वाला दीर्घसंसारी होता है इसलिए) प्रमादवश मुहूर्त्तभर (उसी भव में मुक्ति ), दो भव, तीन भव।
भी सशल्य रहना क्षम्य नहीं है। आचार्य-चरणों में पहुंचकर यदि उसी भव में मोक्ष न हो तो उत्कृष्ट आराधना का अतिचार-शल्यों का उद्धरण कर लेना चाहिए। फल है-जघन्य दो भव, मध्यम आराधना के तीन भव और शल्ययुक्त साधक की शुद्धि नहीं होती-यह तथ्य
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