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आर्यक्षेत्र
आगम विषय कोश-२
संकल्प करने वाले दूसरे का अनुमोदन करता है, वह चतुर्लधु कहा- 'तुम्हारे अतिरिक्त शेष सब आराधक होंगे।' यह सुनकर प्रायश्चित्त का भागी होता है।
स्कंदक चला, कुंभकारकट के उद्यान में ठहरा। ० विरूपरूप-विविध वेश, भाषा और दृष्टि वाले शक, यवन उसे देखते ही पालक का पूर्व वैर जागा। उसने दण्डकी आदि।
से कहा-यह मुनि आपके राज्य को हड़पने आया है। राजा को ० दस्यु-आरुष्ट होकर दांतों से काटने वाले।
विश्वास नहीं हआ, तब पालक ने उद्यान में स्वयं द्वारा छिपाये ० अनार्य-हिंसा आदि अकरणीय कर्म करने वाले। हए आयुधों को दिखाया। क्रद्ध राजा ने कहा-तम जैसा चाहो. ० म्लेच्छ-अव्यक्त-अस्फुटभाषी।
वैसा करो। ० प्रत्यंत-मगध आदि साढे पचीस आर्यक्षेत्रों के सीमावर्ती पालक ने पुरुषयंत्र बनाकर सब साधुओं को पीलना प्रदेशों में रहने वाले अनार्य लोग।
शुरू किया। स्कंदक ने कहा-यंत्र में पहले मुझे डालो। ० निषेध के हेतु : स्कन्दक दृष्टांत
पालक ने स्कंदक की बात को अस्वीकार कर उसे बांध आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिद्रुतो।। दिया। शिष्यों के रक्त से अभिषिक्त स्कंदक ने अशुभ परिणामों एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु पण्णवणा॥ से निदान किया और भवनपतिदेवों में अग्निकुमार के रूप में दोच्चेण आगतो खंदएण वादे पराजितो कुतितो। उत्पन्न हुआ। शिष्य सब सिद्ध हो गए। खंदगदिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराध तव्वज्जा। भगिनी पुरन्दरयशा ने अपने भ्राता मुनि को रत्नकंबल उज्जाणाऽऽयुध णूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं। दिया था, जिसका रजोहरण बनाया गया था। बाज पक्षी ने बंध चिरिक्क णिदाणे, कंबलदाणे रयोहरणं॥ रक्तरंजित रजोहरण को मांस का टुकड़ा समझ कर उठा लिया अग्गिकुमारूववातो, चिंता देवीय चिण्ह रयहरणं। और वह संयोगवश पुरन्दरयशा के सामने जा गिरा। उसे खिज्जण सपरिसदिक्खा, जिण साहर वात डाहो य॥ देखते ही वह आर्तस्वर में बोली-अरे ! यह यहां कैसे? क्या
(बृभा ३२७१-३२७४) मेरा भाई मारा गया? उसने राजा के सामने दुःख प्रकट किया। अनार्यदेश में जाने से आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं,
अग्निकुमार ने पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप संवर्तक आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। यह प्ररूपण भगवान्
वायु की विकुर्वणा कर जनपद सहित नगर को जला दिया महावीर के समय को दृष्टिगत रखकर किया गया है।
और पुत्र-पत्नी सहित पालक को कुत्ते के साथ कुंभी में स्कन्दक का दृष्टांत-श्रावस्ती नगरी । जितशत्रु राजा । धारिणी
पकाया तथा सपरिवार पुरंदरयशा को अर्हत् समवसरण में रानी। युवराज पुत्र स्कन्दक। पुत्री पुरंदरयशा।
पहुंचा दिया। उत्तरापथ में कुम्भकारकट नगर के राजा दण्डकी के ० निषिद्ध क्षेत्रगमन के हेतु साथ पुरन्दरयशा का विवाह हुआ। एक बार दण्डकी का पडिकुट्ट देस कारण गया उ तदुवरमि निति चरणट्ठा। पुरोहित पालक दूत के रूप में श्रावस्ती में आया। राजपरिषद् असिवाई व भविस्सइ, भूए व वयंति परदेसं॥ में शास्त्रार्थ के प्रसंग में स्कन्दक द्वारा पराजित पालक रुष्ट
(बृभा २८८१) होकर अपने देश चला गया।
भगवान् महावीर ने सिन्धु आदि देशों में विहरण का स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ अर्हत् मुनिसुव्रत के निषेध किया है, क्योंकि वे देश संयम के प्रतिकूल हैं। यदि पास प्रव्रजित हुआ। एक दिन स्कन्दक ने पूछा- भंते! क्या मैं दुर्भिक्ष आदि कारणों के उत्पन्न होने पर मुनि निषिद्ध देशों में इन पांच सौ साधुओं के साथ कुंभकारकट नगर में चला जाऊं? जाए तो कारण समाप्त होने पर पुन: संयम के अनुकूल देश में आ 'वहां उपसर्ग होगा'-यह कहते हुए भगवान् ने उसे रोका। जाए अथवा निमित्तबल से यह जान ले कि यहां दुर्भिक्ष होने उसने पुनः पूछा-हम आराधक होंगे या विराधक? भगवान् ने वाला है या हुआ है, तब मुनि प्रतिषिद्ध क्षेत्र में जा सकता है।
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