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आगम विषय कोश-२
आर्यक्षेत्र
वर्त्त
दशार्ण मृत्तिकावती
वहां उपधि आदि की प्राप्ति आगमविहित विधि के अनुसार चेदी शुक्तिमती
सुलभ होती है। निर्विघ्नता के कारण ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सिन्ध-सौवीर वीतभय
वृद्धि होती है। भव्यजनों की दीक्षा से गच्छ की वृद्धि होती है। शूरसेन मथुरा
आर्यक्षेत्र में ही अविरतसम्यग्दृष्टि और व्रती श्रावक भंगी
अपापा (पावापुरी) सुविहित साधुओं की आहार आदि संबंधी प्रतिज्ञाओं को मासपुरी
जानते हैं और तदनुसार उनकी अपेक्षाओं को पूर्ण करते हैं। कुणाला श्रावस्ती
५. अनार्यक्षेत्रगमन निषिद्ध लाढ/लाट कोटिवर्ष
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्ज२६. केकयार्द्ध
श्वेतविका
माणे अंतरा से विरूवरूवाणि पच्चंतिकाणि दस्सुगाइन क्षेत्रों में ही तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव और यतणाणि मिलक्खुणि अणारियाणि दुस्सन्नप्पाणि वासुदेव उत्पन्न होते हैं, इसलिए (प्राचीन मान्यता से) दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिइनको आर्यक्षेत्र की संज्ञा प्राप्त हई है।
भोईणि, सति लाढे विहाराए, संथरमाणेहिं जणवएहिं, णो ४. आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरमहिमाः संयमपालन सुकर __विहार-वत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए॥ (आचूला ३/८) जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ।
भिक्षु अथवा भिक्षुणी ग्रामानुग्राम परिव्रजन करें, उनके भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा॥ मार्ग में विविध देशों की सीमाओं पर विरूपरूप दस्यओं के उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। आयतन हों. म्लेच्छों और अनार्यों के गांव हों. कठिनाई से तो उवदिसंति धम्मं, जगजीवहियाय तित्थकरा॥
साधु का आचार समझने वाले लोग हों, जिन्हें प्रतिबोध देना लोगच्छे रयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। कठिन हो, असमय में जागने वाले और असमय में खाने वाले संसयवाकरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदे॥ हों, तो विहार की प्रतिज्ञा से प्रासुकभोजी मुनि वहां जाने का समणगुणविदुऽत्थ जणो, सुलभो उवधी सतंतमविरुद्धो। संकल्प न करे, यदि विहार के योग्य लाढ देश (आर्यक्षेत्र) आरियविसयम्मि गुणा, णाण-चरण-गच्छवुड्डी य॥ हो, संयम-निर्वाह योग्य अन्य जनपद विद्यमान हों। एत्थ किर सण्णि सावग, जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणा जेभिक्खू विरूवरूवाइंदसुयाययणाई अणारियाई
(बृभा ३२६६-३२७०) मिलक्खूई पच्चंतियाई सति लाढे विहाराए संथरमाणेसु आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों के जन्म, अभिनिष्क्रमण और जणवएसु विहारपडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेतं वा केवलज्ञान की प्राप्ति के समय भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क सातिज्जतितंसेवमाणेआवज्जड चाउम्मासियं परिहारऔर वैमानिक देव महिमा करने आते हैं।
ट्ठाणं उग्घातियं।
(नि १६/२७, ५१) मनुष्य लोक में देवों के विस्मयकारी गमनागमन को देखकर अनेक जीव संबुद्ध-प्रतिबुद्ध होते हैं। कैवल्य-उत्पत्ति सग-जवणादिविरूवा, छव्वीसद्धंतवासि पच्चंता। के पश्चात् क्षीणकर्मा तीर्थंकर प्राणी-जगत् के हित-संपादन कम्माणज्जमणारिय, दसणेहि दसति तेण दसू ।। के लिए उपदेश देते हैं।
मिलक्खूऽव्वत्तभासी भव्य प्राणी तीर्थंकरों के सामने अपने संशयों को प्रस्तुत
(निभा ५७२७, ५७२८) करते हैं। तीर्थंकर अपने अतिशय से एक साथ सबके संशयों का जो भिक्षु साधु-विहरण योग्य जनपद सुलभ होने पर उन्मूलन करते हैं।
भी विरूपरूप दस्य, अनार्य, म्लेच्छ और प्रत्यंत संबंधी क्षेत्रों आर्यक्षेत्र के लोग श्रमणों के हजारों गुणों को जानते हैं। में विहार की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प करता है अथवा
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