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आगम विषय कोश-२
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आज्ञा
ज्ञात हुआ, तब उसने अमात्य को दंडित कर उसका सर्वस्व वालों को गुरु गण से निकाल देते हैं और उन्हें श्रुत प्रदान नहीं हरण कर लिया।
करते। इसी प्रकार जो आचार्य अपने साधुओं को उचित * आचार्य और उपाध्याय में भेद-अभेद आदि आहार आदि उचित समय में नहीं देता है और उनको द्रव्य,
द्र श्रीआको १ आचार्य क्षेत्र, काल और भाव संबंधी अनुचित व्यवस्था से संक्लिष्ट करता है, वह तिरस्कार का भाजन होता है।
आज्ञा-वचननिर्देश। ३५. आचार्य संस्तुति से लाभ
१. आज्ञा के प्रकार आगम्म एवं बहुमाणितोहु, आणाथिरतंच अभावितेसु। ० आज्ञा के पर्याय विणिज्जरा वेणइयाय निच्चं, माणस्स भंगोवियपुजयंते॥ २. गुरुआज्ञा बलवती
___ * लोकोत्तर विनय (आज्ञा) बलवान् द्रविनय (व्यभा १४०४)
३. उपसम्पदा और आज्ञा जो आगमज्ञ आचार्य की पूजा करते हैं, वे आगम का
४. आज्ञा में ही चारित्र की अवस्थिति बहुमान करते हैं, अर्हत्-आज्ञा की आराधना करते हैं। ___ * शय्यातर की अनुज्ञा
द्र शय्यातर गुरुपूजा को देख विनय से अभावित शिष्य विनय में ५. गुरुआज्ञा से उपधिग्रहण प्रतिष्ठित होते हैं। गुरु का विनय करने से कर्मों की सतत ० गुरु आज्ञा से विकृति-ग्रहण और तप निर्जरा होती है, अहंकार क्षीण होता है।
६. बिना आज्ञा भिक्षाटन से प्रायश्चित्त
__* बिना आज्ञा पात्र-ग्रहण से प्रायश्चित्त द्र उपधि - गुर्वायत्ता यस्मात् शास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेपि,
* साधर्मिक आदि की अनुज्ञा
द्र अवग्रह तस्मात् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम्।
७. आज्ञाभंग से अनवस्था दोष
(व्यभापी वृ प २) ८. आज्ञाभंग का परिणाम : चन्द्रगुप्त-चाणक्य दृष्टांत सभी शास्त्रों में प्रवृत्ति गुरु के अधीन होती है, इसलिए * सम्यक् व्यवहारी आज्ञा का आराधक-1 अपना हित चाहने वाले हर शिष्य को गुरु की आराधना में तत्पर
* आज्ञा व्यवहार
- द्रव्यवहार रहना चाहिए।
१. आज्ञा के प्रकार ३६. आचार्य की अवज्ञा से हानि
दव्वे भावे आणा, भावाणा खलु सुयं जिणवराणं।" पज्जाय-जाई-सुततो य वुड्डा, जच्चन्नियासीससमिद्धिमंता।
(व्यभा ३८८६) कुव्वंतऽवण्णंअह ते गणाओ, निजूहई नो यददाइ सुत्तं॥
आज्ञा के दो प्रकार हैं_(बृभा ४४३६)
द्रव्य आज्ञा-राजा आदि की आज्ञा । अल्प पर्याय वाले आचार्य को देख जो पर्यायवृद्ध हैं, भाव आज्ञा-अर्हतों की वाणी। वे सोचते हैं कि यह अवमरालिक है। जो सत्तर वर्ष के वृद्ध
० आज्ञा के पर्याय हैं, वे सोचते हैं कि यह बालक है। जो श्रुतवृद्ध हैं, वे यह अल्पश्रुत है, ऐसा मानते हैं। जो विशिष्ट जाति सम्पन्न हैं, वे
उववातो निद्देसो, आणा विणओ य होंति एगट्ठा।.... यह सोचते हैं कि यह हीनकुल में उत्पन्न हुआ है। जो
(व्यभा २०८१) शिष्यपरिवार से समृद्ध हैं, वे सोचते हैं कि यह अल्प परिवार ।
उपपात, वचननिर्देश, आज्ञा और विनय-ये एकार्थक वाला है, इस प्रकार वे गुरु की अवज्ञा करते हैं। अवज्ञा करने हैं।
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